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________________ ५३२ यज्ञमूर्ति-यतिधर्मसमुच्चय जिसके द्वारा यज्ञ करने वाला देवों तक यज्ञ की सामग्री अथवा अजिन (मगचर्म) । धागा अथवा सूत्र अर्थ नहीं है। पहुँचा सकता है तथा स्वयं भी उनके निवासों तक पहुँच इसे यज्ञोपवीत इसलिए कहते थे कि यह यज्ञ करने की सकता है। योग्यता अथवा अधिकार प्रदान करता था। यज्ञमति-एक अद्वैतवादी प्रौढ विद्वान्, जो रामानुज के (२) आगे चलकर इसका अर्थ 'पवित्र सूत्र' हो गया, समकालीन हुए हैं। कहा जाता है कि रामानुज स्वामी की जो 'यज्ञोपवीत' के प्रतीक अथवा प्रतिनिधि रूप में धारण बढ़ती हुई ख्याति को सुनकर यज्ञमूर्ति श्रीरङ्गम् में आये । किया जाने लगा । उपनयन संस्कार में ब्रह्मचारी को उनके साथ रामानुज का १६ दिनों तक शास्त्रार्थ होता यह पवित्र सूत्र प्रथम बार धारण करने को दिया जाता रहा, परन्तु कोई एक दूसरे को हराता हुआ नहीं दीख है। इस पवित्र सूत्र अथवा यज्ञोपवीत का इतना महत्त्व पड़ा। अन्त में रामानुज ने 'मायावादखण्डन' का अध्ययन बढ़ा कि पूरा उपनयन संस्कार ही यज्ञोपवीत कहलाने किया और उसकी सहायता से यज्ञमूर्ति को परास्त किया । लगा। यज्ञमूर्ति ने वैष्णव मत स्वीकार कर लिया। तबसे उनका यज्ञोपवीत त्रिवृत (तीन लड़ों का) होता है । ब्राह्मण देवराज नाम पड़ा। उनके रचित 'ज्ञानसार' तथा 'प्रमेयसागर' नामक दो ग्रन्थ तमिल भाषा में मिलते हैं। बालक के लिए कपास का, क्षत्रिय के लिए क्षौम (अलसी सूत्र का) और वैश्य के लिए ऊन का यज्ञोपवीत होना यज्ञसप्तमी-यदि ग्रहण के पश्चात् आने वाली माघ की चाहिए। परन्तु सामान्यतः कपास का यज्ञोपवीत सभी सप्तमी हो तथा विशेष रूप से उस दिन संक्रान्ति हो तो व्रती को केवल एक बार हविष्यान्न खाकर रहना के लिए चलता है। यह बायीं भुजा के ऊपर से दाहिनी भुजा के नीचे लटकता है। प्रथम बार आचार्य निम्नांचाहिए। उसे उस दिन वरुण को प्रणाम करना चाहिए कित मन्त्र के साथ ब्रह्मचारी (उपनेय) को यज्ञोपवीत पहतथा भूमि पर, दर्भासन पर, बैठना चाहिए। द्वितीय दिवस नाता है : प्रातः एवं सायं वरुण का यज्ञ करना चाहिए। इस व्रत का बड़ा ही विशाल कर्मकाण्ड शास्त्रों में वर्णित है। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । माघ की सप्तमी को वरुणदेव को, फाल्गुन की सप्तमी को आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।। सूर्य को, चैत्र की सप्तमी को अंशुमाली (सूर्य का पर्याय पर्वी के अवसर पर अथवा धार्मिक कार्य के समय भी वाची शब्द) को तथा अन्य मासों में भी इसी प्रकार सूर्य नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। तब इसी मन्त्र का वाचक नामों को सम्बोधित करते हुए यज्ञों का पौष मास प्रयोग होता है। तक आयोजन करना चाहिए। वर्ष के अन्त में सोने का यति-एक प्राचीन कुल का नाम, जिसका सम्बन्ध भृगुओं रथ जिसमें सात घोड़े जुते हों तथा जिसके मध्य में सूर्य से ऋग्वेद के दो परिच्छेदों में बतलाया गया है (८.३.०६. की प्रतिमा विराजमान हो तथा जो बारह मास के १८)। यहाँ यति लोग वास्तविक व्यक्ति जान सूर्य के बारह नामों का प्रतिनिधित्व करने वाले बारह पड़ते हैं । दूसरी ऋचा में (१०.७२.७) वे पौराणिक दीख ब्राह्मणों से घिरा हो, बनवाकर उनका पूजन और पड़ते हैं । यजुर्वेद संहिता (तै० सं० २.४,९,२;६.२,७,५; सम्मान करना चाहिए। तदनन्तर वह रथ एक गौ सहित ___ का० सं० ८.५; १०.१० आदि) तथा अन्य स्थानों में यति आचार्य को प्रदान करना चाहिए। निर्धन व्यक्ति ताँबे का एक जाति है, जिसे इन्द्र ने किसी बुरे क्षण में सालावक रथ बनवाये। इस व्रत से व्रती विशाल साम्राज्य का (लकड़बग्धों) को खिला दिया था। ठीक-ठीक इसका क्या राजा होता है । हेमाद्रि के अनुसार वरुण का अर्थ यहाँ अर्थ है, ज्ञात नहीं । यति का उल्लेख भृगु के साथ सामवेद सूर्य है । __ में भी मिलता है। यज्ञोपवीत-(१) यज्ञोपवीत का अर्थ है 'यज्ञ के अवसर यतिधर्मसमुच्चय-वैष्णव संन्यासी दसनामी शैव संन्यापर ऊपर से लपेटा (धारण किया) हुआ वस्त्र' । इसका सिओं से भिन्न होते हैं। वैष्णवों में ब्राह्मण ही लिये सर्वप्रथम उल्लेख तैत्तिरीय ब्राह्मण (३. १०.९.१२) में जाते हैं जो त्रिदण्ड धारण करते हैं, जबकि दसनामी एकहुआ है। यहाँ स्पष्ट ही इसका अर्थ है वासः (वस्त्र) दण्डी होते हैं। दोनों सम्प्रदायों को त्रिदण्डी एवं एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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