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________________ मलचारी-मगशिरावत ५२५ बिछाने के वस्त्र, स्वर्णनिर्मित वृष तथा गौ का दान करना कराया गया है, जहाँ इसका अर्थ जंगली जन्तु व्याघ्र, सिंह चाहिए । भगवान शिव ने चैत्र शुक्ल तृतीया को गौरी से आदि हैं। विवाह किया था । अग्निपुराण, १७८.१-२० । (२)ऐतरेय ब्राह्मण (३.३३,५) में सायण भाष्यानुसार मलचारी-सामवेद की शाखा परम्परा में लोगाक्षि के चार 1 चार यह मृगशिरा नक्षत्र है। शिष्यों में से एक मूलचारी भी हुए हैं। ___ (३) आगे चलकर मृग का अर्थ प्रायः हरिण हो मूल प्रकृति-सांख्योक्त सत्त्व, रजस् और तमस् तीनों गुणों गया। मृगचर्म अथवा हरिण की छाल ब्रह्मचारियों तथा के एकत्रित होने से मूल प्रकृति का निर्माण होता है, जो तपस्वियों के आसन के काम आती है। भौतिक वस्तुओं का सूक्ष्म (अदृश्य) उपादान है। शाक्त मुगयु-संहिताओं तथा ब्राह्मणों में मृगयु आखेटक (शिकारी) मतानुसार देवी मूल प्रकृति है तथा सारा विश्व (सृष्टि) का बोधक है, किन्तु इसका प्रयोग कम ही हुआ है । वाजसशक्ति का विलास है। नेयी संहिता और तैत्तिरीय ब्राह्मण में पुरुषमेध यज्ञ की मूलशङ्कर-(१) शिव के आदि अव्यक्त रूप को 'मलशङ्कर' बलि के लिए उन पुरुषों को लेते थे जो अपनी जीविका कहते हैं । स्वामी दयानन्द सरस्वती के बचपन का नाम मछली पकड़कर तथा शिकार द्वारा करते थे। इनमें मूलशङ्कर था। विशेष वर्णन के लिए दे० 'दयानन्द' तथा मागरि, कैवर्त, पौजिष्ट, दाश एवं मैनाल आदि मछए 'आर्यसमाज'। बन्द एवं आनन्द के नाम से प्रसिद्ध है । पिछले दो भी किसी मलस्तम्भ-सामान्य शैव साहित्य में इसकी गणना होती श्रेणी के मछए ही थे। वैदिक काल के आरम्भ में भी है। यह ग्रन्थ मराठी भाषा में मुकुन्दराज द्वारा लिखा आर्य पूरे शिकारी न थे। शिकार का कारण भोजन मनोगया था। रंजन तथा वन्य पशुओं से खेती की रक्षा करना था। मूलाधार-शाक्त मत में ध्यान तथा योगाभ्यास के द्वारा । शिकार में बाणों का प्रयोग होता था। प्रारम्भिक काल शक्ति (देवी) को मूलाधार सुषुम्ना नाडी के छः पर्यों में में जाल एवं गढ़ों का प्रयोग स्वाभाविक था। पक्षियों को सबसे निचला पर्व या चक्र से ऊपर उठाते हुए चार चक्रों जाल से ही पकड़ा जाता था । पाश, निधा, जाल आदि के मार्ग से आज्ञा (मूमध्य) तथा फिर सहस्रार चक्र तक नाम आते हैं। पक्षी पकड़ने वाले को 'निधापति' कहते थे । ले जाते है। इस विद्या को 'श्रीविद्या' कहते हैं। इसकी गढ़ों द्वारा ऋष्य (एक प्रकार का हरिण) पकड़े जाते थे शिक्षा केवल शुभ अथवा समय तन्त्रों से प्राप्त होती है। तथा उस शिकारी का नाम ऋष्पद था। सूअर को दौड़ा शाक्क मतानुसार शरीर में अनेक क्षुद्र प्रणालियाँ अथवा कर पकड़ते थे। शेर के लिए भी गड्ढा खोदते थे या रहस्यमय शक्ति के सूत्र हैं। उन्हें नाड़ी कहते हैं। सबसे शिकारियों द्वारा घेरकर पकड़ते थे। सायण ने कहा है महत्त्वपूर्ण सुषुम्ना है। इससे सम्बन्धित छः केन्द्र अथवा कि धैवर वह है जो तालाब की मछली जाल द्वारा छानता चक्र है, जो मानुषिक देह में एक के ऊपर दूसरे रूप में स्थित है, दाश तथा शौष्कल बंसी = बाद्रिश द्वारा, मार्गार हाथ है । इनको 'कमल' भी कहते हैं। सबसे नीचे का चक्र द्वारा, आनन्द बाँधकर, पर्णक पानी में जहरीला पत्ता मूलाधार कमर के नीचे है। उसके चारों ओर शक्ति सर्प डालकर मछली पकड़ते थे। सदश साढ़े तीन घेरों में सोयी हुई है। इस मुद्रा में उसे मृगशिरा व्रत-श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को इस व्रत का अनुकुण्डलिनी कहते हैं। शाक्त योग द्वारा उसे जगाया तथा ष्ठान होता है । शिव जी ने यज्ञ के तीन मुखों को अपने सबसे ऊपरी चक्र तक ले जाया जा सकता है। मध्य की बाण से, जिसमें तीन काँटे या शल लगे थे, इसी दिन प्रणालियाँ एवं केन्द्र आधार का कार्य करते है । ये ही चक्र बींध दिया था। वही मृग रूप माना गया । व्रती को तथा केन्द्र दीक्षित शाक्तों की आश्चर्यपूर्ण शक्तियों के मिट्टी का हरिण रूप वाला मृगशिरा नक्षत्र बनवाना आधार हैं। चाहिए । तदन्तर उसे कन्द मूल-फल तथा आटे में अलसी मृग-(१) मृग से साधारणतः वन्य पशु का बोध होता है। मिलाकर बनाया गया नैवेद्य मृगशिरा को अर्पण कर कभी-कभी 'भीम' भयंकर विरुद से इसके गुणों का बोध पूजना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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