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________________ ५२४ मुण्डकोपनिषद्-मूलगौरीव्रत (शत० १२.८,३,६) । मुञ्ज को ही मेखला बनती है जिसे मुनि-ऋग्वेद की एक ऋचा में मुनि का अर्थ संन्यासी है, ब्रह्मचारी और तपस्वी धारण करते हैं। जो देवेषित अलौकिक शक्ति रखता है। एक मंत्र में उसे मज की मेखला (कधनी) पहनना दाह, तृष्णा, विसर्प लम्बे केशों वाला कहा गया है । ऋग्वेद (८.१७,१४) में अत्र, मूत्र, बस्ति और नेत्र के रोगों में लाभकारी इन्द्र को मुनियों का मित्र कहा गया है । अथर्ववेद (१.७४) होता है। में देवमुनि का उद्धरण है । उपनिषदों में (बृ० उ० ३.४, 'दाह तृष्णाविसस्रिमूत्रबस्त्याक्षि रोगजित् । १;४.४,२५ तै० आ० २.२० ) मुनि और निग्रही दोषत्रयहरं वृष्यं मौखलमुञ्जमुच्यते ॥ वर्णित हैं, जो अध्ययन, यज्ञ, तप, व्रत एवं श्रद्धा द्वारा (भावप्रकाश) ब्रह्मज्ञान प्राप्त करते हैं। मण्डकोपनिषद-अन्य उपनिषदों की अपेक्षा की अथर्ववेदीय मुनिमार्ग-मानभाऊ सम्प्रदाय का एक नाम 'मुनिमार्ग' भी उपनिषदों की संख्या अधिक है। ब्रह्मतत्त्वप्रकाश ही उनका है । मुनिमार्ग का आशय दत्तात्रेय द्वारा चलाये गये पन्थ उद्देश्य है । शङ्कराचार्य ने मुण्डक, माण्डूक्य, प्रश्न और नृसिंह से है । दे० 'दत्तात्रेय सम्प्रदाय' । तापिनी इन चारों उपनिषदों को प्रधान आथर्वण उपनिषद् मुनि लक्षण-ब्रह्म के चिन्तन के लिए जो मौन धारण माना है । ब्रह्म क्या है ? उसे किस प्रकार समझा जाता है, करता है, उसे मुनि कहते हैं। जिसे ब्रह्म का साक्षात्कार किस प्रकार प्राप्त किया जाता है, इस उपनिषद में इन्हीं हो जाता हैं वही श्रेष्ठ मुनि और वही ब्राह्मण है। मुनि विषयों का वर्णन है। शङ्कराचार्य, रामानुजाचार्य, आन- प्रायः भाषण नहीं करता, मौन हो उसका व्याख्यान है । न्दतीर्थ, दामोदराचार्य, नरहरि आदि के इस उपनिषद् मुमुक्ष-मोक्ष का इच्छुक, संसार के जन्म-मरण से छूटने पर भाष्य व टीकाएँ हैं। का अभिलाषी । अमरता के सन्दर्भ में साधारण आत्मा के मुण्डमालातन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत ६४ तन्त्रों चार प्रकार हैं-(१) बद्ध वह है जो जीवन के सुख-दुखादि की सूची में मुण्डमालातन्त्र भी सम्मिलित है। से बँधा हुआ है तथा मुक्ति मार्ग पर आरूढ़ नहीं है, (२) मुद्गल-ऋग्वेद के अनेक भाष्यकार हैं । मुद्गल का नाम मुमुक्षु-जिसमें मोक्ष की इच्छा जाग्रत हो चुकी है, किन्तु भी उनमें सुना जाता है। अभी इसके योग्य नहीं है । इसे 'जाग्रत बद्ध' कहा जा मुद्गल उपपुराण-उन्तीस उपपुराणों में से एक मुद्गल है। सकता है, (३) केवली या भक्त, जो शुद्ध हृदय से देवो यह गाणपत्य सम्प्रदाय के उपपुराणों में परिगणित है। पासना में भक्ति पूर्वक तल्लीन है और (४) मुक्त जो सभी मुद्गल पुराण-दे० 'मुद्गल उपपुराण' । दोनों एक ही हैं। वासनाओं और बन्धनों से मुक्त है। मुद्रा-(१) अंगुलियों, हाथ अथवा शरीर की गति अथवा मुरारिमिश्र-काप्तीय गृह्य (ग्रन्थ) के अनेक भाष्यकारों में भङ्गियों द्वारा भाव व्यक्त करने का यह एक माध्यम है। मुरारिमिश्र भी एक है। शाक्त लोग देवी को प्रतीक आधार (किसी पात्र) में उता- मुरुह-मुरुह को सुब्रह्मण्य (स्वामी कार्तिकेय) भी कहते हैं। रने के लिए पात्र के ऊपर यन्त्र मण्डल के साथ पूजा- इस देवता की प्रशंसा में 'तिरुमुरुहत्तुप्पदै' नामक एक ग्रन्थ विषयक मुद्राएँ (उँगलियों के सकेत आदि) अङ्कित करते नक्कीर देव नामक तमिल शैव आचार्य ने लिखा है। है । गोरखनाथी सम्प्रदाय के साधु हठयोग की क्रिया में मूलगौरीव्रत-चैत्र शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान आश्चर्यजनक शारीरिक आसन, शरीरशोधन के लिए होता है। इस दिन तिलमिश्रित जल से स्नान करना प्राणायाम तथा अनेकानेक श्वास एवं ध्यान आदि को चाहिए। सुन्दर फलों से शिव तथा गौरी का चरणों से यौगिक मुद्रा को संज्ञा से अभिहित करते हैं। अनेकानेक प्रारम्भ कर मस्तकपर्यन्त पूजन करना चाहिए। बारह मुद्राएँ भारतीय कला, नृत्य आदि में व्यवहृत होती आयी मासों में भिन्न-भिन्न प्रकार के पुष्पों की भेंट चढ़ानी है-यथा :अभय मुद्रा, वरदमुद्रा, ध्यानमुद्रा, भूस्पर्शमुद्रा चाहिए । भिन्न प्रकार के तरल पदार्थ तथा खाद्य पदार्थ आदि । अर्पण करने चाहिए। विभिन्न नामों से गौरी का अलग (२) वामाचार में मञ्च मकारों-मद्य, माँस, मत्स्य, पूजन होना चाहिए। व्रती को कम से कम एक फल का मुद्रा और मैथुन में इसकी गणना है। त्याग करना चाहिए। व्रत के अन्त में उसे पर्यङ्क पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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