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________________ अन्तःकरणप्रबोध-अन्त्यज विवाहकाले रतिसंप्रयोगे प्राणात्यये सर्वधनापहारे। विप्रस्य चार्थे ह्यनृतं वदेत पञ्चानृतान्याहुरपातकानि ।। ( महाभारत, कर्णपर्व) [ यदि विवाह, रति, प्राण संकट, सम्पूर्ण धनापहरण के समय और ब्राहाण के अर्थ के लिए असत्य बोलो तो ये पाँच अनृत पाप में नहीं गिने जाते । ] अन्त:कथासंग्रह-भक्तिविषयक कथाओं का संग्रह ग्रन्थ । इसके रचयिता 'प्रवन्धकोष' के लेखक राजशेखर हैं। रचनाकाल है चौदहवीं शताब्दी का मध्य । अन्तःकरण-भीतर की ज्ञानेन्द्रिय । इसका पर्याय मन । है। कार्यभेद से इसके चार नाम हैं : मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्तं करणमान्तरम् । संशयो निश्चयो गर्वः स्मरणं विषया अमी ।। (वेदान्तसार) [मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त ये चार अन्तःकरण हैं। संशय, निश्चय, गर्व और स्मरण ये चार क्रमशः इनके विषय हैं। इन सबको मिलाकर एक अन्तःकरण कहलाता है। पाँच महाभूतों में स्थित सूक्ष्म तन्मात्राओं के अंशों से अन्तःकरण बनता है। अन्तःकरणप्रबोध-वल्लभाचार्य द्वारा रचित सोलहवीं शताब्दी का एक पुष्टिमार्गीय दार्शनिक ग्रन्थ । अन्तक-यम का पर्याय, अन्त (विनाश) करने वाला । अन्तरात्मा--सर्वप्रथम उपनिषदों में आभ्यन्तरिक चेतन (आत्मा) के लिए इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका समानार्थी शब्द है 'अन्तर्यामी'। यह अतिरेकी सत्ता का दूसरा छोर है जो घट-बट में व्याप्त है। अन्तर्यामी--(१) 'श्रीसम्प्रदाय' भागवत सम्प्रदाय का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग है। शङ्कराचार्य के वेदान्तसिद्धान्त का तिरस्कार करता हुआ यह मत उपनिषदों के प्राचीन ब्रह्मवाद पर विश्वास रखता है । इसके अनुसार सगुण भगवान् को वैष्णव लोग उपनिषदों के ब्रह्मतुल्य बतलाते हैं और कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व उसी में है तथा वह सभी अच्छे गुणों से युक्त है। सभी पदार्थ तथा आत्मा उसी से उत्पन्न हए हैं तथा वह अन्तर्यामी रूप में सभी वस्तुओं में व्याप्त है। (२) यह ईश्वर का एक विशेषण है। हृदय में स्थित होकर जो इन्द्रियों को उनके कार्य में लगाता है वह अन्तकमी है। 'वेदान्तसार' के अनुसार विशुद्ध सत्त्वप्रधान ज्ञान से उपहित चैतन्य अन्तर्यामी कहलाता है : अन्तराविश्य भूतानि यो बिभात्मकेतुभिः । अन्तर्यामीश्वरः साक्षात् पातु नो यद्वशे स्फुटम् ॥ [प्राणियों के अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर जो अपने ज्ञानरूपी केतु के द्वारा उनकी रक्षा करता है, वह साक्षात् ईश्वर अन्तर्यामी है । वह हम लोगों की रक्षा करे, जिसके वश में पूरा संसार है।] अन्तेवासी-वेदाध्ययनार्थ गुरु के समीप रहने वाला छात्र । अन्तेवासी ब्रह्मचारी गुरुगृह में रहकर विद्याभ्यास करता था और उसके योग-क्षेम की पूरी व्यवस्था गुरु अथवा आचार्य को करनी पड़ती थी। छान्दोग्य उपनिषद् (२.२३.१) के अनुसार ब्रह्मचारी को अन्तेवासी की तरह गुरुगृह में रहना पड़ता था। रुचिसाम्य एवं बुद्धिवैचित्र्य में आचार्य के तुल्य हो जाने पर बहुत से ब्रह्मचारी गुरुगृह में आजीवन रह जाते थे। उन्हें गुरुसेवा, गुरु-आज्ञाओं का पालन, समिधा जुटाना, गौओं को चराना आदि काम करने पड़ते थे । अन्त्यज-अन्त्य में उत्पन्न । संस्कृत (सभ्य) उपनिवेशों के बाहर जंगली और पर्वतीय प्रदेशों को अन्त्य कहते थे और वहाँ बसने वालों को अन्त्यज । धीरे-धीरे समाज को निम्नतम जातियों में ये लोग मिलते जाते थे। इनमें से कुछ की गणना इस प्रकार है : रजकश्चर्मकारश्च नटो वरुड एव च । कैवर्तमेदभिल्लाश्च सप्तैते अन्त्यजाः स्मृताः ।। [ धोबी, चर्मकार, नट, वरुड, कैवर्त, मेद, भिल्ल ये सात अन्त्यज कहे गये हैं। आचार-विचार की पवित्रता के कारण अन्त्यज अस्पश्य भी माने जाते थे । इनके समाजीकरण का एक क्रम था, जिसके अनुसार इनका उत्थान होता था । सम्पर्क द्वारा पहले ये समाज में शूद्रवर्ण में प्रवेश पाते थे। शूद्र से सच्छद्र, सच्छद्र से वैश्य, वैश्य से क्षत्रिय और क्षत्रिय से ब्राह्मण-इस प्रकार अनेक पीढ़ियों में ब्राह्मण होने की प्रक्रिया वर्णोत्कर्ष के सिद्धान्त के अनुसार प्राचीन काल में मान्य थी। मध्ययुग में संकीर्णता तथा वर्जनशीलता के कारण इस प्रक्रिया में जड़ता आ गयी। अब नये ढंग से समतावादी सिद्धान्तों के आधार पर अन्त्यजों का समाजीकरण हो रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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