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________________ ३४ अनुराधा-अनृत आवश्यक नहीं समझते। वे अनुमान प्रमाण के लिए प्रतिज्ञा, अनुशिख--पञ्चविंश ब्राह्मण में उल्लिखित नागयज्ञ के एक हेतु और दृष्टान्त इन्हीं तीनों को पर्याप्त समझते हैं। पोता (पुरोहित) का नाम । अनुराधा-अश्विनी से सत्रहवाँ नक्षत्र, जो विशाखा के अनुस्तरणी-प्राचीन हिन्दू शवयात्रा की विविध सामग्रियों बाद आता है। उसका रूप सर्पाकार सात ताराओं से युक्त के अन्तर्गत एक गौ । अनुस्तरणी गो बूढ़ी, बिना सींग की और अधिदेवता मित्र है। इस नक्षत्र में उत्पन्न शिशु के तथा बुरी आदतों वाली होनी चाहिए। जब यह गाय लक्षण निम्नोक्त हैं मृतक के पास लायी जाय तो मृतक के अनुचरों को तीन सत्कीर्तिकान्तिश्च सदोत्सवः स्यात् मुट्ठो धूल अपने कन्धों पर डालनी चाहिए। शवयात्रा में जेता रिपूणाञ्च कलाप्रवीणः । सर्वप्रथम गृह्य अग्नि का पात्र, फिर यज्ञ-अग्नि, फिर जलाने स्यात्सम्भवे यस्य किलानुराधा की सामग्री तथा उसके पीछे अनुस्तरणी गौ रहनी चाहिए सम्पत्प्रमोदौ विविधौ भवेताम् ।। और ठीक उसके पीछे मृत व्यक्ति विमान पर हो। फिर [जिसके जन्मकाल में अनुराधा नक्षत्र हो वह यशस्वी, सम्बन्धियों का दल आयु के क्रम से हो । चिता तैयार कान्तिमान्, सदा उत्सव से युक्त, शत्रुओं का विजेता, हो जाने पर इस गौ को शव के आगे लाते तथा उसको कलाओं में प्रवीण, सम्पत्तिशाली और अनेक प्रकार से मृतक के सम्बन्धी इस प्रकार घेर लेते थे कि सबसे छोटा प्रमोद करने वाला होता है।] पीछे और वय के क्रम से दूसरे आगे हों। फिर इस गाय का अनुलोम विवाह-उच्च वर्ण के वर तथा निम्न वर्ण की वध किया जाता या छोड़ दिया जाता था। मृतक ने जीवन में पशु यज्ञ नहीं किया है तो उसे छोड़ना ही उचित कन्या का विवाह । आजकल की अपेक्षा प्राचीन समाज अधिक उदार था। जातिबन्धन इतना जटिल नहीं था। होता था। क्रमशः छोड़ने के पूर्व गौ को अग्नि, चिता एवं विवाह अनुलोम और प्रतिलोम दोनों प्रकार के होते थे। शव की परिक्रमा कराते थे तथा कुछ मनों के पाठ के अनुलोम के विपरीत निम्न वर्ण के पुरुष का उच्च वर्ण की। साथ उसे मुक्त कर देते थे। कन्या से विवाह करना प्रतिलोम विवाह कहलाता था। अनुस्तोत्र सूत्र-ऋग्वेद के मन्त्र को सामगान में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्र ग्रन्थ आगे चलकर उत्तरोत्तर समाज में इस प्रकार के विवाह बन्द होते गये। इस प्रकार के सम्बन्ध से उत्पन्न सन्तान हैं । अनुस्तोत्र सूत्र उनमें से एक है । की गणना वर्णसंकर (मिश्र वण) में होती थी और समाज अनूचान-जिसने वेद का अनुवचन किया हो । विनयसम्पन्न के अर्थ में इसका प्रयोग होता है। अङ्गों सहित वेदों के में वह नीची दृष्टि से देखा जाता था। ज्ञाता को भी अनूचान कहते हैं : अनुवाकानुक्रमणी--ऋक्संहिता की अनेक अनुक्रमणियों में 'अनूचानो विनीतः स्याद साङ्गवेदविचक्षणः ।' से एक । यह शौनक की रची हुई है तथा इस पर षड्गुरुशिष्य द्वारा विस्तृत टीका लिखी गयी है। इदमूचुरनूचानाः प्रीतिकण्टकितत्वचः । अनुव्याख्यान-वेदान्तसूत्र पर लिखी गयी आचार्य मध्व (कुमारसम्भव) की दो प्रमुख रचनाओं में से एक। यह तेरहवीं शताब्दी [प्रेम से पुलकित शरीर वाले अनूचान ऋषियों ने ऐसा में रची गयी छन्दोबद्ध रचना है। कहा । ] मनु ने ने भी कहा है : अनुवजन--शिष्ट अभ्यागतों के वापस जाने के समय कुछ ऋषयश्चक्रिरे धर्म योऽनूचानः स नो महान् । दूर तक उनके पीछे पीछे जाने का शिष्टाचार : [ऋषियों ने यह धर्म बनाया कि वेदज्ञ व्यक्ति हमसे 'आयान्तमग्रतो गच्छेद् गच्छन्तं तमनुव्रजेत् ।' श्रेष्ठ है।] (निगमकल्पद्रुम) अनृत-इसका शाब्दिक अर्थ है 'मिथ्या' अथवा 'झूठ'। कोई शिष्ट घर में आता हो तो उसकी अगवानी के जिस कर्म में असत्य अथवा हिंसा हो उसे भी अनूत कहते लिए आगे चलना चाहिए। वह जब वापस जा रहा हो। हैं। विवाह आदि पाँच कार्यों में झुठ बोलना पाप नहीं तो विदाई के लिए उसके पीछे जाना चाहिए। ] माना जाता है : * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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