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________________ ब्रह्मानन्द-ब्रह्मोपासना ४५९ मिलती है, परन्तु अध्यात्मरामायण में यह कथा विस्तार ब्रह्मावर्त-(१) आधुनिक हरियाना प्रदेशस्थ प्राचीनतम और दार्शनिक दृष्टिकोण से कही गयी है। निम्नांकित पवित्र भभाग, जिसका शाब्दिक अर्थ ब्रह्म (वेद) का आवर्त अन्य छोटे-छोटे ग्रन्थ भी इसी पुराण से निकले बताये (घूमने या प्रसरण का स्थान) है। मनुस्मृति (२.१७) के जाते हैं : अनुसार कुरुक्षेत्र के आस-पास सरस्वती और दृषद्वती अग्नीश्वर, अञ्जनाद्रि, अनन्तशयन, अर्जुनपुर, अष्ट नदियों के बीच का प्रदेश ब्रह्मावर्त कहलाता है। मनु नेत्रस्थान, आदिपुर, आनन्दनिलय, ऋषिपञ्चमी, कठोर (२.१८) के अनुसार इस देश के आचार को ही सार्व देशिक आचरण के लिए आदर्श माना गया है। गिरि, कालहस्ति, कामाक्षीविलास, कार्तिक, काबेरी, कुम्भकोण, गोदावरी, गोपुरी, क्षीरसागर, गोमुखी, चम्प (२) कानपुर से उत्तर गङ्गातटवर्ती बिठूर नामक कारण्य, ज्ञानमण्डल, तजापुरी, तारकब्रह्ममन्त्र, तुङ्ग तीर्थ का समीपवर्ती क्षेत्र भी ब्रह्मावर्त कहलाता है। संभभद्रा, तुलसी, दक्षिणामूर्ति, देवदारुवन, नन्दगिरि, नरसिंह, वतः यह पौराणिक तीर्थ है। लक्ष्मीपूजा, वेङ्कटेश, शिवगङ्गा, काञ्चो, श्रीरङ्ग, के माहात्म्य ब्रह्मावाप्तिवत-किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तथा गणेशकवच, वेङ्कटेशकवच, हनुमत्कवच आदि । के दिन इस व्रत का प्रारम्भ होता है। यह तिथिव्रत है । ब्रह्मानन्द-आपस्तम्बसूत्र के अनेक भाष्यकारों में से एक । इस दिन उपवास रखते हुए दस देवों की, जिन्हें 'अङ्गिरा' माण्डूक्योपनिषद् के एक वत्तिकार का नाम भी ब्रह्मा- कहा जाता है, एक वर्ष तक पूजा करनी चाहिए। नन्द है। ब्रह्मोद्य-शतपथ आदि ब्राहाणों में इसका अर्थ 'धार्मिक ब्रह्मानन्द सरस्वती-उच्च ताकिकतापूर्ण अद्वैतसिद्धि ग्रन्थ पहेली' है, जो वैदिक क्रियाओं के विभिन्न आयोजनों का के टीकाकार । ये मधुसूदन सरस्वती के समकालीन थे । आवश्यक भाग होती थी । जैसे अश्वमेध अथवा दशरात्र माध्व मतावलम्बी व्यासराज के शिष्य रामाचार्य ने मधु के अवसर पर इसका आयोजन होता था। कौषीतकि सूदन सरस्वती से अद्वैतसिद्धि का अध्ययन कर फिर उन्हीं ब्राह्मण (२७.४ ) में इस शब्द का रूप 'ब्रह्मवद्य' के मत का खण्डन करने के लिए 'तरङ्गिणी' नामक ग्रन्थ तथा तै० सं० ( २.५,८,३,) में 'ब्रह्मवाद्य' है, और की रचना की थी। इससे असन्तुष्ट होकर ब्रह्मानन्दजी सम्भवतः इन तीनों का एक ही अर्थ है-ब्रह्म संबन्धी ने अद्वैतसिद्धि पर 'लघुचन्द्रिका' नाम की टीका लिखकर रहस्यात्मक चर्चा | तरङ्गिणीकार के मत का खण्डन किया। इसमें इन्हें पूर्ण ब्रह्मोपनिषद्-(१) 'ब्रह्म' के सम्बन्ध में एक रहस्यपूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। इन्होंने रामाचार्य की सभी आप सिद्धान्त, जो छान्दोग्योपनिषद् (३.११.३) के एक संवाद त्तियों का बहुत सन्तोषजनक समाधान किया । संसार का का विषय है, ब्रह्मोपनिषद् कहलाता है। मिथ्यात्व, एकजीववाद, निर्गुणत्व, ब्रह्मानन्द, नित्य- (२) संन्यास मार्गी एक उपनिषद् । इसका प्रारंभिक निरतिशय आनन्दरूपता, मुक्तिवाद-इन सभी विषयों का भाग तो कम से कम उतना ही प्राचीन है जितनी मंत्राइन्होंने दार्शनिक समर्थन किया है। ये अद्वैतवाद के एक यणी, किन्तु उत्तरभाग आरुणेय, जाबाल, परमहंस उपप्रधान आचार्य माने जाते है। इनका स्थितिकाल १७वीं निषदों का समसामयिक है। शताब्दी है । इनके दीक्षागुरु परमानन्द सरस्वती थे और ब्रह्मोपासना-(१) ब्रह्म के सम्बन्ध में विचार अथवा विद्यागुरु नारायणतीर्थ । चिन्तन । उपनिषदों तथा परवर्ती वेदान्त ग्रन्थों में इसी (इस टीकावली के आधार पर द्वैत-अद्वैत वादों का उपासना पद्धति का विवेचन हुआ है। तार्किक शास्त्रार्थ या परस्पर खण्डन-मण्डन अब तक (२) ब्राह्मसमाज के द्वितीय उत्कर्ष काल में महर्षि चला आ रहा है, जो दार्शनिक प्रतिभा का एक मनोरञ्जन देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने उपनिषदों की छानबीन कर उनके कुछ ही है।) अंश समाज की सेवासभाओं के लिए १८५० ई० में ग्रन्थ ब्रह्मामृतवर्षिणी-महात्मा रामानन्द सरस्वती ( १७वीं के रूप में प्रकाशित कराये। इस ग्रन्थ का नाम 'ब्राह्मधर्म' शताब्दी) द्वारा रचित ब्रह्मास्त्र की एक टीका। रखा गया। इसमें ब्राह्म सिद्धान्त के वीज या चार सिद्धान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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