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________________ ४५० डॉ० ल्याने लिपजिग से इसका प्रकाशन कराया। इसके पश्चात् आनन्दाश्रम प्रेस पूना से स्मृतिसंग्रह में यह प्रकाशित हुआ। १९०७ ई० में गवर्नमेण्ट ओरियण्टल सोरीज, मैसूर में गोविन्द स्वामी की टीका और भूमिका के साथ इसका प्रकाशन हुआ । परन्तु पूरे ग्रन्थ का हस्तलेख अभी तक नहीं प्राप्त हुआ है। बौधायनशुल्व सूत्र शुल्बसूत्र दो उपलब्ध हैं - बौधायनशुल्वसूत्र तथा आपस्तम्बल्वसूत्र इन सूषों में पुराने समय की ज्यामिति तथा क्षेत्रमिति के सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ है। 'शुरुव' एक प्रकार का सूत्र (फीता ) होता था, जिससे यज्ञवेदियों के वर्ग क्षेत्र आदि की नाप-जोख करने की विधि इस सूत्र में प्रदर्शित है । बौधायनधौतसूत्र कृष्ण यजुर्वेद का श्रौतसूत्र बौधायनश्रौतसूत्र की पूरी प्रति मिलती नहीं है, जहाँ तक उपलब्ध है उसकी विषयसूची इस प्रकार है: पहले खण्ड में दर्शपूर्णमास, दूसरे में आधान, तीसरे में पुनराधान, चौथे में पशु पांचवें में चातुर्मास्य छठे में सोमप्रवर्ग, सातवें में एकादशी, पशु, आठवें में चयन, नवें में वाजपेय, दसवें में शुल्वसूत्र, ग्यारहवें में कर्मान्त सूत्र, बारहवें में द्वैधसूत्र, सूत्र, तेरहवें में प्रायश्चित्तसूत्र, चौदहवें में काठसूत्र पन्द्रहवें में सौत्रामणि सूत्र सोलहवें में अग्निष्टोम और सत्रहवें में धर्मसूत्र है। कपर्दी स्वामी केशव स्वामी, गोपाल, देव स्वामी, धूर्त स्वामी, भव स्वामी, महादेव वाजपेयी और सायण के लिखे इस सूत्र पर भाष्य हैं । 7 ब्रजविलास दे० 'व्रजविलास' । ब्रह्म ब्रह्म की सत्ता हिन्दू धर्म, दर्शन, सामाजिक व्यवस्था साहित्य और कला की आधारशिला है। जीवन के सभी अङ्ग प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से इससे प्रभावित एवं अनुप्राणित हैं । इस शब्द का प्रादुर्भाव वेदों से ही दृष्टिगोचर होता है। सामान्य प्रयोगों में इसका अर्थ 'प्रार्थना', 'मन्त्र', 'शब्द' 'तेज', 'शक्ति', 'धन', 'सम्पत्ति' आदि है । किन्तु व्युत्पत्ति और दर्शन की दृष्टि से इसका अर्थ अधिक गम्भीर, व्यापक और अतिरेकी है । - " इस शब्द की व्युत्पत्ति 'बृह' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है प्रस्फुटित होना, प्रसरण, बढ़ना आदि। इसका Jain Education International बौधायनशुल्बसूत्र ब्रह्म सम्बन्ध बृहस्पति और वाचस्पति से भी है । वास्तव में उच्चारित शब्द की अन्तर्निहित शक्ति के विस्फोट और उपबृंहण से ही इन तीनों शब्दों का तादात्म्य है। इन अर्थों में 'बृहत्' होने की भावना की प्रधानता है, जिसका आशय है : 'ब्रह्म' सबसे बड़ा है, उससे बड़ा कोई नहीं । वही सर्वव्यापक, बृहत्तम अथवा महत्तम है । छान्दोग्य उपनिषद् के 'भूमा' शब्द में इसी अर्थ की अभिव्यक्ति हुई है, जिसका तात्पर्य सार्वभौम, सर्वव्यापक असीम और अनन्त सत्ता है । 1 सर्वप्रथम उपनिषदों में ब्रह्म का विवेचन हुआ है। तैत्तिरीय उपनिषद् में एक संवाद के अन्तर्गत भृगु ने पिता वरुण से प्रश्न किया कि 'ब्रह्म' क्या है । वरुण ने उत्तर दिया "यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्य तद् ब्रह्मेति ।" 1 [ जिससे ये समस्त भूत (जगत् के जड़ चेतन पदार्थ) जन्म लेते हैं, उत्पन्न होकर जिसके आश्रय से जीते हैं और पुनः उसी में लौटकर पूर्णतः विलीन हो जाते हैं, उसी को सम्यक प्रकार से जानने की इच्छा करो। यही ब्रह्म है ।] 9 ब्रह्म का इसी प्रकार का निरूपण दूसरे शब्दों में छान्दोग्य उपनिषद् में पाया जाता है। इसमें ब्रह्म को 'वज्लान्' (तत् + ज++ अन्) कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि ब्रह्म तज्ज, तल्ल और तदन है। वह 'तज्ज' है, क्योंकि समस्त भूत उसी से उत्पन्न होते हैं वह 'तरुल' है, क्योंकि सभी भूतों का लय उसी में होता है और वह 'तदन्' है, क्योंकि अपनी स्थिति के समय में सभी भूत उससे अनन अथवा प्राणन करते हैं । ब्रह्म में इन तीनों का समावेश है, इसलिए ब्रह्म का निरूपण 'तज्जलान्' सूत्र से किया जाता है । तैत्तिरीय उपनिषद् में ब्रह्म को सच्चिदानन्द ( सत् + चित् + आनन्द) माना गया है। उसी में सब पदार्थों का अस्तित्व है, समस्त चैतन्य का स्रोत भी वही है और आनन्द का उद्गम भी । ब्रह्म को 'सत्यं शिवम् आनन्दम्' भी कहा गया है । वास्तव में 'तज्जलान्' ब्रह्म का 'तटस्थ' लक्षण हैं, अर्थात् यहाँ ब्रह्म का विचार बाह्य जगत् की दृष्टि से किया गया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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