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________________ पूर्वमीमांसासूत्र-पेरियतिरुवन्दादि ४१५ पूर्वमीमांसासूत्र-इसकी रचना ई० पू० पाँचवीं-चौथी गया है। इनका एक विरुद 'वैन्य' अर्थात् वेन का पुत्र है। शताब्दी में जैमिनि ऋषि द्वारा मानी जाती है । यह बारह इन्हें प्रथम अभिषिक्त राजा कहा गया है । पुराणों में पृथु अध्यायों में विभक्त है। विविध विषय अधिकरणों में की कथा का विस्तार से वर्णन है। राज्य की उत्पत्ति के विभक्त हैं। सम्पूर्ण अधिकरणों की संख्या नौ सौ साप्त सम्बन्ध में यह कथा कही गयी है । ब्रह्मा ने राज्य संचा(९०७) है। प्रत्येक अधिकरण में कई सूत्र है। समस्त लन के लिए एक संहिता बनायी, परन्तु इसका उपयोग सूत्रों की संख्या दो हजार सात सौ पैंतालीस (२७४५) करने के लिए किसी पुरुष की बावश्यकता थी। विष्णु ने है । प्रत्येक अधिकरण में पाँच भाग होते हैं-(१) विषय अपने तेज से विराज की उत्पत्ति की। किन्तु विराज (२) संशय (३) पूर्व पक्ष (४) उत्तर पक्ष (५) सिद्धान्त । और उसके छः वंशजों ने राज्य करने से इन्कार कर ग्रन्थ के तात्पर्यनिर्णय के लिए (१) उपक्रम (२) उप- दिया । वेन अन्यायी राजा हुआ। क्रुद्ध ऋषियों ने राजसंहार (३) अभ्यास (४) अपूर्वता (नवीनता) (५) फल सभा में ही उसका वध कर दिया एवं उसकी दाहिनी (उद्देश्य) (६) अर्थवाद (माहात्म्य) और (७) उपपत्ति भुजा का मन्थन करके पृथु को उत्पन्न किया। पृथु ने (प्रमाणों द्वारा सिद्धि) ये सात बातें आवश्यक हैं। न्यायपूर्वक प्रजा पालन की प्रतिज्ञा की। विष्ण, देवपूर्वाचिक-सामवेद की राणायनीय संहिता के पूर्वाचिक ताओं, ऋषियों और दिक्षालों ने उनका राज्याभिषेक और उत्तराचिक दो भाग हैं। पहले भाग में ग्राम्यगीत किया । संसार ने पृथु की नर देवताओं में गणना की और एवं अरण्यगीत हैं, दूसरे भाग में ऊहगीत तथा उह्यगीत देवता के समान उनकी पुजा की। पृथु आदर्श राजा के संगृहीत हैं। प्रतीक माने जाते हैं। पूर्वाह-दिन के प्रथम अर्ध भाग का बोधक शब्द । देव पृथुश्रवा दौरेश्रवस-यह दूरेश्रवा का आत्मज था, कार्य के लिए यह काल उपयुक्त माना गया है। जिसका उल्लेख पञ्चविंश ब्राह्मण (२५.१५.३) में नागयज्ञ पृथिवी (पृथिवि, पृथ्वी)-यह शब्द भूमि एवं विस्तीर्ण के के एक उद्गाता पुरोहित के रूप में हुआ है। अर्थ में ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ है । पश्चात् इसका व्यक्ती पृथ्वीचन्द-सिक्खों के एक उपगुरु । खालसा संस्था की करण एक देवी के रूप में हो गया। इसका उपर्युक्त अर्थों उत्पत्ति से सिक्ख दो भागों में बँट गये : (१) सहिजमें प्रयोग अकेले तथा द्यौ (आकाश) के साथ 'द्यावा धारी तथा (२) सिंह । सहिजधारियों की छः शाखाएँ पृथ्वो' के रूप में हुआ है । इस रूप में चावा-पृथिवी समस्त देवताओं के जनक-जननी हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार हुईं, जिनमें १७३८ वि० (लगभग) में गुरु रामदास के पृथिवी समुद्र की मेखला धारण करती है । शतपथ ब्रा० में पुत्र पृथ्वीचन्द ने 'मिन' नामक शाखा की नींव डाली। पृथिवी को 'सृष्टिज्येष्ठ' और 'प्रथमसृष्टि' कहा गया है। पृदाकु-अथववद में उद्धृत एक सप । अश्वमेध के बलिअथर्ववेद का पृथ्वीसूक्त प्रसिद्ध है, इसमें पथिवी को माता पशुओं की तालिका में यह भी सम्मिलित है। अथर्ववेद और मनुष्यों को उसका पुत्र कहा गया है। पुराणों में पथिवी (१.२७,१) के अनुसार इसका चर्म विशेष मूल्यवान का पूरा व्यक्तीकरण या दैवीकरण हआ है। पथिवी प्रायः होता था। गोरूप में चित्रित है, वह ऋत और सत्य की साक्षी और पृश्नि-ऋग्वेद में वर्णित बादलरूपी गाय । मरुतों को रुद्र मानवचरित्र की निरीक्षिका है। तथा पृश्नि ( गौ ) का पुत्र कहा गया है। वास्तव में प्रातःकाल उठते ही धार्मिक हिन्दू पथिवी की निम्ना विभिन्न रंगों के झंझावाती बादलों का यह नाम है । ङ्कित मन्त्र से प्रार्थना करता है : पुषत्-अश्वमेध के बलिपशुओं की तालिका में उल्लिखित समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमण्डले । एक पशु । निरुक्त ( २.२ ) में इसका अर्थ 'चितकबरा विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे ।। हरिण' बताया गया है। पृथु (पृथि, पृथी)-आद्य व्यवस्थापक और शासक । पेरियतिरुवन्दादि-नम्म आलवार के ग्रन्थों में से, जो इनका विशेष करके कृषि के अनुसन्धाता तथा दोनों विश्वों चारों वेदों के प्रतिनिधि हैं, 'पेरियतिरुवन्दादि' अथर्ववेद (मनुष्य तथा पशुओं) के स्वामी के रूप में वर्णन किया का प्रतिनिधित्व करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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