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________________ पूर्णाहुति-पूर्वमीमांसा स्वाभाविक है। इसी कारण भगवान् पूर्णब्रह्म श्री कृष्ण अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत तीनों सत्ताओं से परिपूर्ण थे। पूर्णाहति-यज्ञ समाप्त होने पर जो अन्तिम आहुति दी जाती है उसे पूर्णाहति कहते है। इसमें घृतपूर्ण नारियल, फूल, ताम्बूल आदि स्रुव में रखकर विस्तृत मन्त्रपाठ के साथ अग्नि में अर्पित किये जाते हैं। पूर्णिमावत-(१) समस्त पूर्णिमाओं को धूप, दीप, पुष्प, फल, चन्दन, नैवेद्यादि से पार्वती उमा की पूजा और सम्मान करना चाहिए । गृहस्वामिनी केवल रात्रि में भोजन करे, यदि वह समस्त पूर्णिमाओं को व्रत न कर सके तो कम से कम कातिकी पूर्णिमा को अवश्य करे। (२) श्रावणी पूर्णिमा को व्रतकर्ता उपवास रखे और इन्द्रिय निग्रह करके १०० बार प्राणायाम साधे। इससे वह समस्त पापों से मुक्त हो जायगा। (३) कार्तिकी पूर्णिमा के दिन महिलाएं अपने घर अथवा उद्यान की दीवार पर शिव तथा उमा की आकृ- तियाँ खींचें। तदनन्तर इन दोनों देवों की गन्धाक्षतपुष्पादि से पूजा करते हुए गन्ना अथवा गन्ने के रस से तैयार वस्तुएँ चढ़ाएँ। तिलरहित खाद्य पदार्थ नक्त विधि से खाये जायें। इस व्रत से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। पृथ्वीव्रत-इस व्रत में देवी के रूप में पृथ्वी का पूजन होता है। पूर्त-'पूर्त' या 'पूर्ति' शब्द ऋग्वेद (६.१६,१८; ८.४६, २१) तथा अन्य संहिताओं में उपहार का बोधक है, जो पुरोहित को सेवाओं के बदले में दिया जाता था। आगे चलकर 'इष्ट' के साथ इसका प्रयोग होने लगा, तब इसका अर्थ 'लोकोपकारी धार्मिक कार्य-कूप, बाग, तालाब, सड़क, धर्मशाला, पांथशाला निर्माण' आदि हो गया। इष्ट (यज्ञ) अदृष्ट फल वाला होता है; पूर्त दृष्ट फल वाला । धार्मिक क्रिया के ये दो प्रधान अङ्ग हैं। पूर्वपक्ष-तार्किक वाद में प्रतियोगी सिद्धान्त का यह पूर्व अथवा प्रथम प्रतिपादन है। उत्तर पक्ष इसका खण्डन करता है। पूर्वमीमांसा-षड्दर्शनों में अन्तिम युग्म 'मीमांसा' के पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा ये दो भाग हैं। पूर्वमीमांसा यथार्थतः दर्शन नहीं है; वास्तव में यह वेदों की छानबीन है, जैसा कि इसके नाम से ही प्रकट है । यह वेद के प्राथमिक अंश अर्थात् यज्ञ भाग से सम्बन्ध रखता है, जबकि उत्तरमीमांसा उपनिषद भाग से। उपनिषदों का वेद के अन्तिम अंश से सम्बन्ध होने के कारण उत्तरमीमांसा को वेदान्त भी कहते हैं तथा पूर्वमीमांसा को कर्ममीमांसा कहते हैं। पूर्वमीमांसा में वेदोक्त धर्म के विषय की खोज तथा कर्म के विवेचन द्वारा हिन्दुओं के धार्मिक कर्तव्य की स्थापना हुई है। यह प्रणाली यज्ञकर्ताओं के सहायतार्थ स्थापित हुई थी तथा आज तक सनातनी हिन्दुओं में द्विजों की मार्गदर्शक है। यह वेदान्त, सांख्य तथा योग के समान संन्यासधर्म की शिक्षा नहीं देती।। पूर्वमीमांसाशास्त्र (सूत्र) के प्रणेता जैमिनि ऋषि हैं । इस पर शबर स्वामी का भाष्य है। कुमारिल भट्ट के 'तन्त्रवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' भी इसकी व्याख्या के रूप में प्रसिद्ध हैं। माधवाचार्य ने भी 'जैमिनीय न्यायमालाविस्तर' नामक एक ऐसा ही ग्रन्थ रचा है। मीमांसा शास्त्र में यज्ञों का विस्तृत विवेचन है, इससे उसे यज्ञविद्या भी कहते हैं। मीमांसा का तात्विक सिद्धान्त विलक्षण है। इसकी गणना अनीश्वरवादी दर्शनों में होती है। आत्मा, ब्रह्म, जगत् आदि का विवेचन इसमें नहीं है। यह केवल वेद अथवा उसके शब्द की नित्यता का ही प्रतिपादन करता है । इसके अनुसार मन्त्र ही देवता हैं, देवताओं की अलग कोई सत्ता नहीं। 'भाट्टदीपिका' में स्पष्ट कहा गया है कि फल के उद्देश्य से सब कर्म होते हैं। फल की प्राप्ति कर्म द्वारा ही होती है। कर्म और उनके प्रतिपादक वचनों (वेदमन्त्रों) के अतिरिक्त ऊपर से और किसी देवता या ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं है। मीमांसकों और मैयायिकों में भारी मतभेद यह है कि मीमांसक शब्द को नित्य मानते हैं और नैयायिक अनित्य । सांख्य और मीमांसा दोनों अनीश्वरवादी हैं, पर वेद की प्रामाणिकता दोनों मानते हैं। भेद इतना ही है कि सांख्याचार्य प्रत्येक कल्प में वेद का नवीन प्रकाशन मानते हैं और मीमांसक उसे नित्य अर्थात् कल्पान्त में भी नष्ट न होने वाला कहते हैं। इस शास्त्र का 'पूर्वमीमांसा' नाम इस अभिप्राय से नहीं रखा गया कि यह उत्तरमीमांसा से पूर्व बना । 'पूर्व' कहने का तात्पर्य यह है कि कर्मकाण्ड मनुष्य का प्रथम धर्म है, ज्ञानकाण्ड का अधिकार उसके उपरान्त आता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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