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________________ पिप्पलाद-पीठ पूर्ण कलशों का दान, द्वितीय वर्ष आठ कलशों का दान, तथा पहाड़ों की चोटियों पर बलि प्रदान की जाती है। तृतीय वर्ष बारह कलशों का और चतुर्थ वर्ष सोलह दे० नीलमत पुराण, ५५-५६, श्लोक ६७४-६८१ । कलशों का दान विहित है। सुवर्ण की दक्षिणा देनी पिशाचमोचन--(१) मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी को यह व्रत चाहिए। इस द्वादशी का पिपीतक नाम इसलिए है कि किया जाता है। काशी में कपर्दीश्वर शिव के पास कुण्डइसी नाम के ब्राह्मण द्वारा यह प्रचारित हुई । दे० व्रतकाल- स्नान तथा उनका पूजन किया जाता है। वहीं भोजन विवेक, १९-२०; वर्षकृत्यकौमुदी, २५२-२५८ । वितरण का विधान है। प्रति वर्ष इस व्रत का अनुष्ठान पिप्पलाद-पिप्पलाद (पीपल के फल खाने वाले ) नामक होता है। व्रती पिशाच होने की स्थिति से मुक्त हो आचार्य का उल्लेख प्रश्नोपनिषद् में हुआ है । ये अथर्ववेद जाता है। की शाखा 'पैप्पलाद' के प्रवर्तक थे। (२) स्मृतिकौस्तुभ (१०८) के अनुसार इस दिन गङ्गा पिप्पलावशाखा-अथर्ववेद नौ शाखाओं में विभक्त है, में स्नान करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए, जव जिनमें एक शाखा 'पैप्पलाद' है। इस शाखा की मूल कि चतुर्दशी मंगलवार को पड़े। व्रती इससे पिशाचयोनि संहिता की एक मात्र प्रतिलिपि कुछ काल पूर्व तक में पड़ने से मुक्त हो जाता है। भारत में बची थी और वह कश्मीर में थी, जहाँ से एक काशी में पिशाचमोचन नामक तीर्थ प्रसिद्ध है। भ्रान्त घटनावश वह जर्मनी पहुँच गयी। अब उक्त प्रति- पिष्टाशन व्रत-इस व्रत में प्रति नवमी को केवल आटे का लिपि के आधार पर यह संहिता भारत में मुद्रित हो आहार किया जाता है। महानवमी को इसका प्रारम्भ गयी है। केवल इसके प्रथम पृष्ठ का पाठ संदिग्ध है, होता है । नौ वर्ष तक यह चलता है। गौरी इसकी देवी क्योंकि उक्त प्रति मे वह खंडित हो गया है। हैं । इससे समस्त मनोवाञ्छाओं की पूर्ति होती है। पिप-ऋग्वेद के अनुसार इन्द्र का एक शत्रु । यह इन्द्र द्वारा पीठ-(१) किसी धार्मिक क्रिया के मुख्य आधारस्थान को बार-बार हराया गया था। पुरों (दुर्गी) का स्वामी होने पीठ कहते हैं । कुलालिकतन्त्र में पाँच वेदों, पाँच योगियों के कारण उसे दास तथा असुर कहा गया है । इस नाम और पाँच पीठों का उल्लेख है। उत्कल में 'उड्डियान', का अर्थ 'विरोधक' (विरोध करने वाला) है । जालन्धर में 'जाल', महाराष्ट्र में 'पूर्ण', श्रीशैल पर पिशङ्ग-पञ्चविंश ब्राह्मण (२५.१५,३) में उल्लिखित नाग- 'पतङ्ग' और असम में 'कामाख्या', ये पाँच ही शानों यज्ञ के दो उन्नेता पुरोहितों में से एक का नाम के आदि पीठ हैं। बाद में जो ५१ पीठ हो गये, उनके पिशङ्ग है। होते हुए भी ये पाँच मुख्य माने जाते हैं। पिशाच-अथर्ववेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में उद्धृत असुरों में (२) प्राणिशरीर के अन्दर पाँच कोष होते हैं, जिनमें से एक वर्ग का नाम पिशाच है । तैनिरीय संहिता (२.४, अन्नमय कोष स्थलकोष कहा जाता है। शेष प्राणमय, १,१) में उनका सम्बन्ध राक्षसों और असुरों से बताया मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय ये चतुर्विध सूक्ष्म गया है तथा दोनों को मनुष्यों एवं पितरों का विरोधी कहा कोष है । इनमें अन्नमय कोष एक प्रकार का संयोजक गया है। अथर्ववेद (५,२५,९) में उन्हें क्रव्याद (कच्चा कोष है, जो स्थूल और सूक्ष्म कोषों के मध्य कड़ी का काम मांस भक्षण करने वाला) कहा गया है। सम्भवतः ये करता है। आनन्दमय कोष से समस्त दैवी लोकों का मानवों के शत्र थे तथा अपने उत्सवों पर नरमांस भक्षण सम्बन्ध रहता है। इसी प्रकार स्थूल अन्नमय कोष करते थे। उत्तर वैदिककाल में एक 'पिशाचवेद' अथवा (शरीरों) से जब देवताओं का सम्बन्ध स्थापित होता है, पिशाचविद्या' का भी प्रचलन था। तब अन्नमय कोषों या शरीरों में उनकी स्थिति के लिए पिशाचचतुर्दशी-चैत्र कृष्ण चतुर्दशी। इसमें भगवान् शङ्कर आधार निर्मित हो जाता है । उसे पीठ कहते हैं। यह का पूजन तथा रात्रि में उत्सव करने का विधान है। प्राणमय होता है। निकुम्भ नामक राक्षस इसी दिन भगवान् शङ्कर की पूजा प्राण की आकर्षण और विकर्षण दो शक्तियाँ हैं। करता है अतएव इस दिन निकुम्भ का भी सम्मान किया आकर्षण शक्ति अपनी ओर खींचती है एवं विकर्षण जाता है तथा पिशाचों को गोशालाओं, नदियों, सड़कों शक्ति इसके विपरीत कार्य करती है। दोनों शक्तियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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