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________________ ३९४ किया गया है, वहाँ उन्हें पाखण्डी, पाखण्डधर्मो कहा गया है । इसमें निन्दा का भाव नहीं, वेदमार्ग से भिन्न पथ या उसका अनुयायी होने का अर्थ है । धार्मिक संकीर्णतावश बोलचाल में अपने से भिन्न मत वाले को भी पाखण्डी कह दिया जाता है जैसे कि वैष्णवों के मत में तन्त्रशास्त्र पाखण्ड मत कहा गया है । पाञ्चरात्र मत - वैष्णव सम्प्रदाय का एक रूप । पाँच प्रकार की ज्ञानभूमि पर विचारित होने के कारण यह मत पाञ्चरात्र कहा गया है : 'रात्रं च ज्ञानवचनं ज्ञानं पञ्चविधं स्मृतम् ।' इस मत के सिद्धान्तानुसार सृष्टि को सद वस्तुएँ 'पुरुष, प्रकृति, स्वभाव, कर्म और देव' इन पांच कारणों से उत्पन्न होती है (गीता १८.१४) महाभारत काल तक इस मत का विकास हो चुका था । ईश्वर की सगुण उपासना करने की परिपाटी शिव और विष्णु की उपासना से प्रचलित हुई। फिर भी वैदिक काल में ही यह बात मान्य हो गयी थी कि देवताओं में विष्णु का एक श्रेष्ठ स्थान है । इसी आधार पर वैष्णव धर्म का मार्ग धीरे-धीरे प्रशस्त होता गया और महाभारत काल में उसे 'पारा' मत्ता मिली। इस मत की वास्तविक नींव भगवद्गीता में प्रतिठित है, जिससे यह बात सर्वमान्य हुई कि श्री कृष्ण विष्णु के अवतार हैं । अतएव पाञ्चरात्र मत की मुख्य शिक्षा कृष्ण की भक्ति ही है । परमेश्वर के रूप में कृष्ण की भक्ति करने वाले उनके समय में भी थे, जिनमें गोपियाँ मुख्य थीं । उनके अतिरिक्त और भी बहुत से लोग थे । इस मत के मूल आधार नारायण हैं । स्वायम्भुव मन्वन्तर में "सनातन विश्वात्मा से नर नारायण, हरि और कृष्ण चार मूर्तियाँ उत्पन्न हुई । नर-नारायण ऋषियों ने बदरिकाश्रम में तप किया। नारद ने वहाँ जाकर उनसे प्रश्न किया। इस पर उन्होंने नारद को पाखरात्र धर्म सुनाया ।" इस धर्म का पहला अनुवायी राजा उपरिचर वसु हुआ। इसी ने पाञ्चरात्र विधि से पहले नारायण की पूजा की । चित्रशिखण्डी उपनामक सप्त ऋषियों ने वेदों का निष्कर्ष निकालकर पाञ्चरात्र शास्त्र तैयार किया। स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षि मरीनि अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वसिष्ठ हैं। इस शास्त्र में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों का विवेचन है। यह ग्रन्थ पहले एक , Jain Education International पाञ्चरात्रमत- पाणिनीयदर्शन लाख श्लोकों का था, ऐसा विश्वास किया जाता है। इसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्ग है। दोनों मार्गों का यह आधार स्तम्भ है । दे० महाभारत शान्तिपर्व, ना० उ० । पाञ्चरात्र मतानुसार वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध का श्री कृष्ण के चरित्र से अति घनिष्ठ सम्बन्ध है । इसी आधार पर पञ्चरात्र का चतुर्व्यूह सिद्धान्त गठित हुआ है। 'व्यूह' का शाब्दिक अर्थ है 'विस्तार', जिसके अनुसार विष्णु का विस्तार होता है । वासुदेव स्वयं विष्णु हैं जो परम तत्त्व हैं । वासुदेव से संकर्षण ( महत्तत्व, प्रकृति), संकर्षण से प्रद्युम्न ( मनस् विश्वजनीन ) प्रद्युम्न से अनिरुद्ध ( अहंकार, विश्वजनीन आत्मचेतना) और अनिरुद्ध से ब्रह्मा (भ्रष्टा दृश्य जगत् के) की उत्पत्ति होती है। पाञ्चरात्र मत में वेदों को पूरा-पूरा महत्त्व तो दिया ही गया है, साथ ही वैदिक यज्ञ क्रियाएँ भी इसी तरह मान्य की गयी हैं। हाँ, यश का अर्थ अहिंसायुक्त वैष्णव यज्ञ है । कहा जाता है कि यह निष्काम भक्ति का मार्ग है, इसी से इसे 'ऐकान्तिक' भी कहते हैं। पाञ्चरात्रशास्त्र - दे० 'पाञ्चरात्र मत' | पाञ्चरात्रसंहिता आयमिक संहिताएँ १०८ कही जाती है। किन्तु संख्या दूने से भी अधिक है। इनमें धर्म और आचार का विस्तृत वर्णन है। इनके भी दो विभाग : पाञ्चरात्र और वैखानस किसी मन्दिर में पारा तथा किसी में वैखानस संहिताएँ प्रमाण मानी जाती हैं । पाणिनि - संस्कृत भाषा के विश्वविख्यात व्याकरण ग्रन्थनिर्माता । उक्त ग्रन्थ आठ अध्यायों में होने के कारण अष्टाध्यायी कहा जाता है, आठ अध्यायों के चार-चार के हिसाब से बत्तीस पाद हैं । इस ग्रन्थ पर कात्यायन, पतजलि, व्याडि आदि आचायों की व्याख्याएं है। पाणिनि का निवास स्थान तक्षशिला के पास शलातुर ग्राम था । इनके स्थितिकाल के विषय में विद्वानों का मतैक्य नहीं है । विभिन्न इतिहासकार इनका समय दशवीं शती और चौथी शती ई० पू० के बीच कहीं रखते हैं। पाणिनीयदर्शन - माधवाचार्यकृत 'सर्वदर्शनसंग्रह' में आस्तिक षड्दर्शनों के साथ चार्वाक, बौद्ध, आर्हत, पाशुपत, शैव, पूर्णप्रश, रामानुज, पाणिनीय और प्रत्यभिज्ञा इन नी दर्शनों का परिचयात्मक उल्लेख है । परन्तु पाणिनीय, For Private & Personal Use Only -- www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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