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________________ ३८२ पञ्चलाङ्गलव्रत-पञ्चाल बाभ्रव्य प्राचीन आचार्यों के पांच सिद्धान्तों का निरूपण है । पण्डित सुधाकर द्विवेदी और मिस्टर थीवो ने मिलकर इसे सम्पादित और प्रकाशित कराया है। पञ्चलाङ्गलवत-शिलाहार राजा गन्धारादित्य (शक सं० १०३२-१११०) के एक ताम्रपत्र में इस व्रत का उल्लेख है। वैशाख मास में चन्द्रग्रहण के समय यह व्रत किया गया था । मत्स्यपुराण (अध्याय २८३) में यह विस्तार से वर्णित है । किसी पुण्य तिथि, चन्द्र अथवा सूर्य ग्रहण के समय अथवा युगादि तिथि को पाँच काष्ठ के हल तथा पाँच ही सुवर्ण के हल और दस बैलों के सहित भूमि का दान करना ‘पञ्च लाङ्गल व्रत' कहलाता है। पञ्चविंश ब्राह्मण-सामवेदीय ब्राह्मण ग्रन्थों में ताण्ड्य ब्राह्मण सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसमें पचीस अध्याय हैं इसलिए यह पञ्चविंश ब्राह्मण भी कहलाता है। इसके प्रथम अध्याय में यजुरात्मक मन्त्रसमूह है, दूसरे और तीसरे अध्याय में बहुस्तोम का विषय है। छठे अध्याय में अग्निष्टोम की प्रशंसा है । इस तरह अनेक प्रकार के याग-यज्ञों का वर्णन है । पूर्ण न्याय, प्रकृति-विकृतिलक्षण, मूल प्रकृति विचार, भावना का कारणादि ज्ञान, षोडश ऋत्विक्परिचय, सोमप्रकाशपरिचय, सहस्र संवत्सरसाध्य तथा विश्वसृष्टसाध्य सूत्रों के सम्पादन की विधि इसमें पायी जाती है। इनके सिवा तरह-तरह के उपाख्यान और इतिहास की जानने योग्य बातें लिखी गयी है। इस ग्रन्थ में सोमयाग की विधि और उस सम्बन्ध के सामगान विशेष रूप से हैं, साथ ही कौन सत्र एक दिन रहेगा, कौन सौ दिन रहेगा और साल भर रहेगा, कौन सौ वर्ष रहेगा और कौन एक हजार वर्ष रहेगा इस बात की व्यवस्थाएँ भी हैं । सायणाचार्य इसके भाष्यकार और हरिस्वामी वृत्तिकार हैं। पञ्चविधिसूत्र-ऋक् मन्त्रों को सामगान में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्र ग्रन्थ हैं। इनमें से एक का नाम 'पञ्चविधिसूत्र' है और दूसरे का 'प्रतिहारसूत्र'। ये ग्रन्थ कात्यायन के लिखे कहलाते हैं। पञ्चविधिसूत्र में दो प्रपाठक है। पञ्चशिख-सांख्ययोग के दो ऐतिहासिक आचायों का उल्लेख महाभारत में आता है, ये हैं पञ्चशिख एवं वार्षगण्य । पाञ्चरात्रों का विश्वास है कि उनके मत की दार्श- निक शिक्षाओं के प्रवर्तक पञ्चशिख थे, क्योंकि वैष्णव धर्म सांख्ययोग के सिद्धान्तों पर आधारित है। पञ्चसिद्धान्तिका-ज्योतिविद् वराहमिहिर का लिखा ज्यो- तिषशास्त्रविषयक एक ग्रन्थ । इसमें ग्रहगति सम्बन्धी पञ्चामृत-देवमूर्तियों पर पञ्चामृत चढ़ाने की प्रथा अति प्राचीन है। विविध पूजाओं के पश्चात् पञ्चामृत (दुग्ध, दधि, घृत, शर्करा एवं मधु) से मूर्ति को स्नान कराया जाता है तथा इसके बाद धातु के छिद्रित पात्र से दुग्ध-जल द्वारा अभिषेक करते हैं। पञ्चामृत स्नान कराते समय वेदमन्त्रों का अलग-अलग उच्चारण किया जाता है। शालग्राम को जिस पञ्चामत में नहलाते हैं उसे प्रसाद के रूप में भक्तजन ग्रहण करते हैं। पञ्चायतनपूजा-इस पूजा की प्रथा किसी विद्वान धार्मिक व्यवस्थापक की सूझ है। किन्तु किसने और कब इसे आरम्भ किया यह निश्चित रूप से कहना कठिन है । पञ्चायतन पूजा के रूप में पाँच देवों (विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य और गणेश) की नियमित पूजा स्मार्तों के लिए बतायी गयी है। अनेक विद्वानों का कथन है कि शङ्कराचार्य ने इस प्रथा का आरम्भ किया। कुछ इसको कुमारिल भट्ट द्वारा प्रवर्तित मानते हैं, जबकि अन्य इसे और भी प्राचीन बतलाते हैं । इतना स्पष्ट है कि पञ्चायतन पूजा उस समय प्रारम्भ हुई जब ब्रह्मा का महत्त्व कम हो चुका था एवं उपर्युक्त पाँच देवता प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। कुछ विद्वान् इसका आरम्भ सातवीं शताब्दी ई० से बतलाते हैं । पञ्चायतन के पाँचों देवताओं पर पाँच उपनिषदें इस काल में रची गयीं जो अथर्वशिरस् नाम से संगृहीत हैं । वे निश्चय ही साम्प्रदायिक उपनिषदें हैं। इस पूजापद्धति में अन्य देवताओं के ये प्रतिनिधि (पञ्चायतन) है। इसीलिए सामान्य हिन्दू पाँचों के साथ अन्य देवों की पूजा भी कर सकता है। पञ्चाल वाभ्रव्य-ऋक् संहिता के क्रमपाठ के प्रवर्तक आचार्य । प्रातिशाख्य (११.१३) में ये केवल 'वाभ्रव्य' कह गये हैं। प्रातिशाख्य से यह मालूम होता है कि कुरु-पञ्चाल लोग जैसे क्रमपाठ के चलाने वाले हुए, उसी तरह कोसलविदेह के लोग अर्थात् शाकल समुदाय वाले पदपाठ के प्रवर्तक थे । पदपाठ से शब्दों की ठीक विवेचना की रक्षा और क्रमपाठ से मन्त्रों के ठीक-ठीक क्रम की रक्षा अभिप्रेत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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