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________________ पञ्चब्रह्म उपनिषद्-पञ्चरात्ररक्षा नैवेद्यादि से पूजन करना चाहिए। आनेवाले तीनों प्रहरों में मन्त्र, पुष्प, नैवेद्यादि में भिन्नता होनी चाहिए। दूसरे दिन प्रातः एक सपत्नीक ब्राह्मण को बुलाकर दान-दक्षिणा देकर उसका सम्मान करना चाहिए। तदनन्तर गौरी की प्रतिमाओं को किसी हथिनी अथवा घोड़ी की पीठ पर विराजमान करके उन्हें किसी नदी, सरोवर अथवा कूप में विसर्जित कर देना चाहिए। पञ्चब्रह्म उपनिषद् - यह एक परवर्ती उपनिषद् है । इसमें ब्रह्मतत्व का निरूपण उसके पाँच रूपों के द्वारा किया गया है । 1 पञ्चभङ्ग दल - पाँच वृक्ष, यथा आम्र, अश्वत्थ (पीपल), वट प्लक्ष तथा उदुम्बर की पत्तियां ही पञ्चभङ्ग दल हैं । दे० कृत्यकल्पतरु, शान्ति पर । यही पञ्चपल्लव कहे जाते हैं। सम्प्रदायभेद से पञ्चपल्लवों में कुछ हेरफेर भी हो जाता है, उदुम्बर और प्लक्ष के स्थान पर कुछ लोग पनस (कटहर ) और बकुल (मौलिथी) के पत्र ग्रहण करते हैं। ऊपर का वर्ग वेदसंप्रदायी है । पञ्च मकार तन्त्रशास्त्र में पचमकारों का अर्थ एवं उनके दान के फल आदि का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। ये तान्त्रिकों के प्राणस्वरूप है, इनके बिना साधक को किसी भी कार्य का अधिकार नहीं है। मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन नामक पाँच मकारों से जगदम्बिका की पूजा की जाती हैं। इसके बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता और तत्त्वविद् पण्डित गण इससे रहित कर्म की निन्दा करते हैं। पक्षमकार का फल महानिर्वाणतन्त्र के ग्यारहवें पटल में इस प्रकार है : मपान करने से अष्टैश्वर्य और परामुक्ति तथा मांस के भक्षण से साक्षात् नारायणत्व का लाभ होता है। मत्स्य भक्षण करते ही काली का दर्शन होता है। मुद्रा के सेवन से विष्णुरूप प्राप्त होता है। मैथुन द्वारा साधक शिव के तुल्य होता है, इसमें संशय नहीं । वस्तुतः पञ्चमकार मूलतः मानसिक वृत्तियों के संकेतात्मक प्रतीक थे, पीछे अपने शब्दार्थ के भ्रम से ये विकृत हो गये। तन्त्रों की कुख्याति का मुख्य कारण ये स्थूल पचमकार हो हैं । पञ्चमहापापनाशनद्वादशी - श्रावण की द्वादशी अथवा पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। व्रती को भगवान् के बारह रूपों का पूजन करना चाहिए। अमावस्या के दिन तिल, मूंग, गुड़ तथा अक्षत का नैवेध Jain Education International ३८१ बनाकर अर्पित करने का विधान है । पञ्च रत्नों को दान में देना चाहिए। इस व्रत के आचरण से मनुष्य पाँच महा पापों से वैसे ही मुक्त हो जाता है, जैसे इन्द्र, अहल्या, चन्द्र तथा बलि अपने महापापों से मुक्त हुए थे । पञ्चमहाभूतव्रत - चैत्र शुक्ल पञ्चमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। इसमें पञ्च भूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश) के रूप में भगवान् हरि की पूजा होती है । एक वर्ष तक यह अनुष्ठान चलता है । वर्ष के अन्त में वस्त्रों का दान करना चाहिए। पञ्चमीव्रत - मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को इसका अनुष्ठान किया जाता है। सूर्योदय होने पर व्रत सम्बन्धी कर्मों को प्रारम्भ कर देना चाहिए। सुवर्ण, रजत, पीतल, ताम्र या काष्ठ की लक्ष्मी जी की प्रतिमा अथवा किसी वस्त्र के टुकड़े पर उनकी आकृति बनाकर चरणों से लगाकर मस्तक तक फूल, फल तथा अन्यान्य भक्ष्यभोज्य पदार्थों से पूजन करना चाहिए सपना नारियों को पुष्प, केसर तथा मिष्टान्नादि से सज्जित करके एक प्रस्थ अक्षत तथा घृत से पूरित पात्र को दान में देना चाहिए। मन्त्र यह है "श्रियो हृदयं प्रसीदतु ।" वर्ष के प्रत्येक मास में लक्ष्मी का पूजन भिन्न-भिन्न नामों से करने का विधान है । तदनन्तर लक्ष्मी की प्रतिमा का भी दान कर दिया जाय, ऐसा विधान है । - 1 पचमूर्ति चैत्र शुक्ल पञ्चमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। इस दिन उपवास करते हुए भगवान् के आयुधों शङ्ख, चक्र, गदा तथा पद्म और पृथ्वी की आकृतियाँ एक ही परिधि में चन्दन के लेप से खींचना तथा उनका पूजन करना चाहिए। प्रत्येक मास की पञ्चमी के दिन यह सब कृश्य होना चाहिए । वर्षान्त में पांच रंग के वस्त्रों का दान करना चाहिए। इसके अनुष्ठान से राजसूय यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है । पञ्चरत्न -- पञ्च रत्न हैं-हीरक, विद्रुम, लहसुनिया, पद्मराग तथा मुक्ता ( कृत्यकल्पतरु, नैत्यकालिक काण्ड, ३६६) । हेमाद्रि (१.४७ ) के अनुसार पञ्च रत्नों में सुवर्ण, रजत, मोती, मूँगा तथा लाजावर्त सम्मिलित हैं । पञ्च रत्नों का afe कृत्यों में बहुधा उपयोग होता है । ये माङ्गलिक माने जाते हैं । पञ्चरत्नस्तव - यह अप्पय दीक्षित कृत स्त्रोत्र ग्रन्थ है । पञ्चरात्ररक्षा - आचार्य रामानुज कृत एक वैष्णव ग्रन्थ है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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