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________________ न्यायकणिका-न्यायनिबन्धप्रकाश ३७७ मीमांसा के द्वारा वेद के शब्दों और वाक्यों के अर्थों का इस पर उद्योतकर का वार्तिक (६०० ई०) प्रसिद्ध है। निर्धारण किया जाता है । न्याय (तर्क) के द्वारा वेद से इसके पश्चात् वाचस्पति मिश्र, जयन्त भट्ट, उदयनाचार्य प्रतिपाद्य प्रमाणों और पदार्थों का विवेचन किया जाता आदि प्रसिद्ध विद्वान् हुए । बारहवीं शताब्दी के लगभग है। ऐतिहासिक दृष्टि से न्यायदर्शन के दो उद्देश्य रहे हैं : नव्य-न्याय का विकास हुआ। इस नये सम्प्रदाय के प्रसिद्ध एक तो वैदिक दर्शन का समन्वय और समर्थन, दूसरे आचार्य गङ्गेश उपाध्याय, रघुनाथ शिरोमणि, जगदीश वेदविरोधी बौद्ध आदि नास्तिक दर्शनों का खण्डन । भट्टाचार्य, गदाधर भट्टाचार्य आदि हए । पहले न्याय और वैशेषिक अलग-अलग स्वतन्त्र दर्शन न्यायकणिका-वाचस्पति मिश्र ने मण्डनमिश्र के 'विधिमाने जाते थे। न्याय का विषय प्रमाणमीमांसा और विवेक' पर न्यायकणिका नामक टीका की रचना की। वैशेषिक का पदार्थमीमांसा था। आगे चलकर न्याय एवं ग्रन्थ का निर्माणकाल लगभग ८५० ई० है। वैशेषिक प्रायः एक दार्शनिक सम्प्रदाय मान लिये गये। न्यायकन्दली-श्रीधर नामक बंगाल के लेखक ने ९९१ ई० इस दर्शन के अनुसार प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, में प्रशस्तपाद पर न्यायकन्दली नामक व्याख्या रची। दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, यह वैशेषिक दर्शन का मान्य ग्रन्थ है। वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान-इन न्यायकल्पलता-जयतीर्थाचार्य (पन्द्रहवीं शताब्दी) का जन्म सोलह तत्त्वों के ज्ञान से निःश्रेयस अथवा मोक्ष की प्राप्ति दक्षिण भारत में हुआ था। इन्होंने न्यायकल्पलता की सम्भव है। जब इनके ज्ञान से दुःखजन्य प्रवत्ति, दोष रचना की। राघवेन्द्र स्वामी ने इस पर वृत्ति लिखी है। और मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाते है तब मोक्ष अथवा न्यायकुलिश-द्वितीय रामानुजाचार्य ने न्यायकुलिश नामक निःश्रेयस की उपलब्धि होती है। मुख्य प्रमाण चार है : ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ सम्भवतः कहीं प्रकाशित (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) उपमान और (४) शब्द नहीं हुआ है। (श्रुति)। इन प्रमाणों के द्वारा प्रमेय (जानने योग्य पदार्थ न्यायकुसुमाञ्जलि-उद्भट विद्वान् उदयन की प्रसिद्ध है-आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ, बुद्धि, मन, रचना न्यायकुसुमाञ्जलि है। इसमें ईश्वर की सत्ता सिद्ध प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव (जन्म-जन्मान्तर), फल, दुःख की गयी है। यह ग्रन्थ छन्दोबद्ध है तथा ७२ स्मरणीय और अपवर्ग (मोक्ष) । न्यायदर्शन ईश्वर के अस्तित्व को पद्यों में है। प्रत्येक पद्य का गद्यार्थ रूप भी साथ ही साथ मानता है । इसके अनुसार ईश्वर एक तथा आत्मा अनेक दिया गया है। हैं । ईश्वर सर्वज्ञ तथा आत्मा (जीव) अल्पज्ञ है। ज्ञान । न्यायचिन्तामणि-ग्यारहवीं शताब्दी से न्याय लथा वैशेषिक आत्मा का एक गुण है। दर्शनों को एक ही दर्शन मानने अथवा एक में मिलाने का न्याय शास्त्र जगत् के स्वतन्त्र अस्तित्व (मन और प्रयास होने लगा। इस मत की पुष्टि बारहवीं शताब्दी विचार से पृथक् ) को मानता है । सृष्टि का उपादान के प्रसिद्ध आचार्य गङ्गेश की रचना 'न्याय (या तत्त्व)कारण प्रकृति तथा निमित्त कारण ईश्वर है। जिस प्रकार । चिन्तामणि' से होती है। • कुम्भकार मिट्टी से विविध प्रकार के बरतनों का निर्माण न्यायतत्त्व-नाथ मुनि (१००० ई०) की रचनाओं में करता है, उसी प्रकार सर्ग के प्रारम्भ में ईश्वर प्रकृति से 'न्यायतत्त्व' भी सम्मिलित है । यह न्यायदर्शन का प्रसिद्ध जगत के विभिन्न पदार्थों की सष्टि करता है । इस प्रकार ग्रन्थ है। न्याय एक वस्तुवादी दर्शन है जो जनसाधरण के लिए न्यायदीपावली-आनन्दबोध भट्टारकाचार्य (बारहवीं सुगम है। शताब्दी ) के तीन ग्रन्थों में 'न्यायदीपावली' भी है। इन ___ इस दर्शन के मूल यद्यपि वेद-उपनिषद् में ढूँढे जा ग्रन्थों में अद्वैत मत का विवेचन किया गमा है। सकते हैं किन्तु इसके ऐतिहासिक प्रवर्तक गौतम थे । इनके न्यायदीपिका-वैष्णवाचार्य जयतीर्थ (पन्द्रहवीं शताब्दी) ने नाम से 'गौतमन्यायसूत्र' प्रसिद्ध है जो लगभग ५वीं-- न्यायदीपिका नामक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में ४थी शताब्दी ई० पू० में प्रणीत जान पड़ते हैं। तीसरी माध्व मत का विवेचन है। शताब्दी के लगभग वात्स्यायन ने इन पर भाष्य लिखा। न्यायनिबन्धप्रकाश-गङ्गश के पुत्र वर्धमान (१२वीं शताब्दी) ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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