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________________ नैमिषीय-न्याय देवीभागवत, देवीपुराण, मार्कण्डेयपुराण में तो शक्ति हुए चले जाओ; जहाँ इस चक्र को नेमि (परिधि) गिर का माहात्म्य ही है । महाभारत और रामायण दोनों में जाय उसी स्थल को पवित्र समझना और वहीं आश्रम देवी की स्तुतियाँ हैं और अद्भत रामायण में तो अखिल बनाकर ज्ञानसत्र करना । शौनक के साथ अठासी सहस्र विश्व की जननी सीताजी के परम्परागत शक्ति वाले रूप ऋषि थे । वे सब उस चक्र के पीछे घूमने लगे। गोमती की बहुत सुन्दर-सुन्दर स्तुतियाँ की गयी है। प्राचीन पाञ्च- नदी के किनारे एक वन में चक्र की नेमि गिर गयी और रात्र मत का 'नारदपञ्चरात्र' प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ है। वहीं वह चक्र भमि में प्रवेश कर गया। चक्र की नेमि उसमें दसों महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गयी गिरने से वह क्षेत्र 'नैमिष' कहा गया। इसी को 'नैमिषाहै । निदान, श्रुति, स्मृति में शक्ति की उपासना जहाँ-तहाँ रण्य' कहते हैं । पुराणों में इस तीर्थ का बहुधा उल्लेख उसी तरह प्रकट है, जिस तरह विष्णु और शिव की मिलता है। जब भी कोई धार्मिक समस्या उत्पन्न होती उपासना देखी जाती है । इससे स्पष्ट है कि शाक्त मत थी, उसके समाधान के लिए ऋषिगण यहाँ एकत्र के वर्तमान साम्प्रदायिक रूप का आधार श्रुति-स्मृति है होते थे। और यह मत उतना ही प्राचीन है जितना वैदिक साहित्य । वैदिक ग्रन्थों के कतिपय उल्लेखों में प्राचीन नैमिष उसकी व्यापकता तो ऐसी है कि जितने सम्प्रदायों का वन की स्थिति सरस्वती नदी के तट पर कुरुक्षेत्र के वर्णन यहाँ अब तक किया गया है, बिना अपवाद के वे समीप भी मानी गयी है। सभी अपने परम उपास्य की शक्ति को अपनी परम नैष्कर्म्यसिद्धि-सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) ने संन्यास लेने उपास्या मानते हैं और एक न एक रूप में शक्ति की के पश्चात जिन ग्रन्थों का प्रणयन किया उनमें 'नैष्कर्म्यउपासना करते हैं। __ सिद्धि' भी है । मोक्ष के लिए सभी कर्मों का संन्यास जहाँ तक शैव मत निगमों पर आधारित है, वहाँ तक (त्याग) आवश्यक है, इस मत का प्रतिपादन इस ग्रन्थ में शाक्त मत भी निगमानुमोदित है। पीछे से जब आगमों किया गया है। के विस्तत आचार का शाक्त मत में समावेश हुआ, तब नैष्ठिक (ब्रह्मचारो)-आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करते से जान पड़ता है कि निगमानुमोदित शाक्त मत का हुए गुरुकुल में स्वाध्यायपरायण रहने वाला ब्रह्मचारी दक्षिणाचार, दक्षिणमार्ग अथवा वैदिक शाक्त मत नाम (निष्ठा मरणं तत्पर्यन्तं ब्रह्मचर्येण तिष्ठति)। याज्ञवल्क्य पड़ा । आजकल इस दक्षिणाचार का एक विशिष्ट रूप का निर्देश है : "नैष्ठिको ब्रह्मचारी तु वसेदाचार्यबन गया है । इस मार्ग पर चलने वाला उपासक अपने सन्निधौ।" इसके विपरीत उपकुर्वाण ब्रह्मचारी सीमित को शिव मानकर पञ्चतत्त्व से शिव की पूजा करता है काल या प्रथम अवस्था तक गुरुकुल में पढ़ता था। और मद्य के स्थान में विजयारस का सेवन करता है। न्यग्रोध-न्यक् = नीचे की ओर, रोध = बढ़नेवाला वृक्ष । इसे विजयारस भी पञ्चमकारों में गिना जाता है। इस मार्ग । बरगद (वट) कहते हैं । इसकी डालियों से बरोहें निकल को वामाचार से श्रेष्ठ माना जाता है । कर नीचे की ओर जाती हैं तथा जड़युक्त खम्भों के रूप नैमिशीय (नेमिषीय)-नैमिषारण्य के वासियों को नैमिशीय में परिवर्तित होकर वक्ष के भार को सँभालती है। अथर्वअथवा नैमिषीय कहते हैं। काठक संहिता, कौषीतकि- वेद में इसका अनेक बार उल्लेख हुआ है । यज्ञ के चमस ब्राह्मण तथा छान्दोग्य उपनिषद में नैमिषीयों को विशेष इसके काष्ठ के बनते थे । निश्चय ही यह वैदिक काल में पवित्र माना गया है । अतएव महाभारत नैमिषारण्यवासी बड़े महत्त्व का वृक्ष था जैसा कि आज भी है । अश्वत्थ ऋषियों को ही प्रथमतः सुनाया गया था । (पीपल ) इसका सजातीय वृक्ष है, जिसका उल्लेख नैमिषारण्य-उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में गोमती नदी ऋग्वेद में हुआ है। न्यग्रोध और अश्वत्थ दोनों ही का तटवर्ती एक प्राचीन तीर्थस्थल । कहा जाता है कि धार्मिक दृष्टि से पवित्र है । ये ही आदि चैत्य वृक्ष हैं। महर्षि शौनक के मन में दीर्घकालव्यापी ज्ञानसत्र करने इनकी छाया मन्दिर तथा सभामण्डप का काम देती थी। की इच्छा थी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर विष्णु न्याय-याज्ञवल्क्यस्मृति में धर्म के जिन चौदह स्थानों की भगवान् ने उन्हें एक चक्र दिया और कहा कि इसे चलाते गणना है, उनमें न्याय और मीमांसा भी सम्मिलित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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