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________________ निश्चलदास-नीतिवाक्यामृत पाय काँटों में गिरा देती है। कभी-कभी ऊँचे पेड़ों पर चढा दर्शन के अनुसार उसे यह ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि देती है। उसकी पुकार का उत्तर देना बड़ा संकटमय सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के द्वारा होता है; पुरुष के ऊपर कर्म होता है। का आरोप मिथ्या तथा भ्रममूलक है। जब यह ज्ञान निश्चलदास--एक दादूपन्थी सन्त, जो महात्मा दादुजी के । प्राप्त हो जाता है तब मनुष्य बन्धन में नहीं पड़ता। शिष्य थे । ये कवि तथा वेदान्ती भी थे। इनकी रचनाएँ। जिस प्रकार भुने हुए चने से फिर पौधा नहीं उत्पन्न होता उत्कृष्ट है, और सबका आधार श्रुति-स्मृति और विशे- वैसे ही सांख्यबुद्धि से कर्मफल उत्पन्न नहीं होता। षतः अद्वैतवाद है। निश्चलदास के प्रभाव से दादूपन्थ परन्तु यह मार्ग सरल नहीं है। अतएव भक्तिमार्ग में, के सदस्यों ने अद्वैत सिद्धान्त को ग्रहण किया था। विशेषकर भागवत सम्प्रदाय में, यह बताया गया है कि निश्वास आगम-यह रोद्रिक आगम है। कर्म को भगवत्प्रीत्यर्थ करना चाहिए और फल की निजी निश्वासतत्त्वसंहिता-यह ग्यारहवीं शताब्दी वि० का। कामना न करके उसे भगवान् के चरणों में अर्पित कर ग्रन्थ है, जो शाक्त जीवन के सभी अङ्गों के लिए विशद देना चाहिए । इस प्रकार कृष्णार्पणबद्धि से कर्म करने से नियमावली प्रस्तुत करता है। मनुष्य बन्धन में नहीं पड़ता। निष्कलंकावतार-अठारहवीं शताब्दी वि० के उत्तरार्ध में निष्किरीय-वैदिक परोहितों की एक शाखा का नाम बुन्देलखण्ड के पन्ना नामक स्थान पर महात्मा प्राणनाथ निष्किरीय है जिसका उल्लेख पञ्चविंश ब्राह्मण ने शिक्षा दी कि भारत के सारे धर्म मेरे ही व्यक्तित्व में (१२.५,१४ ) में हआ है । इसके द्वारा एक सत्र चलाया समन्वित है, क्योंकि मैं एक साथ ही ईसाइयों का मसीहा, गया था। मुसलमानों का महदो तथा हिन्दुओं का निष्कलंकावतार निषिद्ध तिथि आदि-कुछ निश्चित मासों, तिथियों, साप्ताहूँ। उन्होंने अपना धर्मसिद्धान्त 'कुलज्जम साहेब' हिक दिनों, संक्रान्तियों तथा व्रतों के अवसरों पर कुछ नामक ग्रन्थ में व्यक्त किया है । दे० 'कूलज्जम साहेब' । निष्काम कर्म-मोक्ष की प्राप्ति के लिए भागवत धर्म में क्रियाएँ तथा आचार-व्यवहार निषिद्ध हैं। इनकी एक लम्बी सूची है। जीमूतवाहन के कालविवेक ( पष्ठ और विशेषकर भगवद्गीता में निष्काम कर्म का आदेश है। इसमें फल की इच्छा के बिना कर्म किया जाता है ३३४-३४५ ) में इस प्रकार के निषिद्ध क्रियाकलापों की एक सूची दी गयी है, किन्तु अन्त में यह भी कह तथा उपास्यदेव के चरणों में कर्म को समर्पित किया जाता है । देवता इसे ग्रहण करता है तथा अपनी स्वर्गीय प्रकृति दिया गया है कि ये क्रियाकलाप उन्हीं लोगों के लिए को उसके फल के रूप में देता है। फिर देवता उपासक निषिद्ध हैं, जो वेद, शास्त्र, स्मृति ग्रन्थ तथा पुराण जानते अथवा कर्म करनेवाले के हृदय में प्रवेश करता है तथा हैं । ऐसे अवसर कदाचित् असंख्य हैं, जिनका परिगणन भक्ति के गणों को जन्म देता है और अन्त में मोक्ष प्रदान असम्भव है। करता है। निहंग-सिक्खों को सिंघ शाखा के अकाली 'निहंग' भी निष्काम कर्म के पीछे दार्शनिक विचार यह है कि कहे जाते हैं। वास्तव में संस्कृत निःसंग का ही यह कर्म के फल-शुभाशुभ के अनुसार मनुष्य संसारचक्र प्राकृत रूप है, जिसका अर्थ है संग अथवा आसक्तिरहित । अथवा आवागमन में फँसता है। इसलिए जब तक कर्म नौनिवाक्यामृत-सोमदेव रि कृत राजनीति विषयक दशम से छुटकारा नहीं मिलता तब तक मुक्ति सम्भव नहीं । शताब्दी का एक ग्रन्थ । यह ग्रन्थ कौटिलीय अर्थशास्त्र अव प्रश्न यह उठता है कि यह छुटकारा कैसे मिले । एक की शैली में लिखा गया है । सामग्री भी अधिकांशतः उसीः मार्ग यह है कि कर्म का पूरा परित्याग करके संसार से ग्रन्थ से ली गयी है । इसके अनुसार राजनीति का उद्देश्य संन्यास ले लेना चाहिए । इसका अर्थ है अक्षरशः नष्कर्म्य धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति है : “धर्मार्थकामफलाय का पालन । परन्तु गीता में कहा गया है कि ऐसा करना राज्याय नमः" [ उस राज्य को नमस्कार है, जिसका सम्भव नहीं । जब तक मनुष्य शरीरधारण करता है तब फल धर्म, अर्थ और काम है। ] इस ग्रन्थ में निम्नांकित तक वह कर्म से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए सांख्य विषयों पर विचार किया गया है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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