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________________ ३५८ नाथसम्प्रदाय . सिद्धियाँ प्राप्त की थीं और इसी कारण वे योगीन्द्र सम्बन्ध भी स्पष्ट है। योगी भस्म भी रमाते हैं, परन्तु कहलाते थे। भस्मस्नान का एक विशेष तात्पर्य है-जब ये लोग शरीर नायमुनि ने नम्मालवार तथा अन्य आलवारों की में श्वास का प्रवेश रोक देते हैं तो रोमकूपों को भी स्तुतियों को संग्रह कर एक-एक हजार छन्दों के चार वर्गों भस्म से बन्द कर देते हैं। प्राणायाम की क्रिया में यह में विभक्त किया तथा इन्हें द्रविड़गीतों के स्वर-ताल में महत्त्व की युक्ति है। फिर भी यह शुद्ध योगसाधना का बाँधा । सम्पूर्ण ग्रन्थ 'नालाभिर प्रबन्धम्' अथवा चार पन्थ है । इसीलिए इसे महाभारत काल के योगसम्प्रदाय हजार स्तुतियों का ग्रन्थ कहलाता हैं। त्रिचनापल्ली के की परम्परा के अन्तर्गत मानना चाहिए। विशेषतया श्रीरङ्गम् मन्दिर में नियमित रूप से इन स्तुतियों के गान इसलिए कि पाशुपत सम्प्रदाय से इसका सम्बन्ध हलका सा की व्यवस्था करने में भी ये सफल हए । यह प्रथा अन्य ही देख पड़ता है। साथ ही योगसाधना इसके आदि, मध्य मन्दिरों में भी प्रचलित हुई तथा आज बड़े-बड़े मन्दिरों और अन्त में है। अतः यह शैव मत का शद्ध योग सम्प्रमें इनकी प्रचारित शैली में स्तुतियों का पाठ होता है। दाय है। ये धार्मिक नेता एवं आचार्य भी थे । इनकी देखरेख में ___ इस पन्य वालों की योग साधना पातञ्जल विधि का विकसित रूप है । उसका दार्शनिक अंश छोड़कर हठयोग एक विद्यावंश का जन्म हुआ जिसके अन्तर्गत कई संस्कृत को क्रिया जोड़ देने से नाथपन्थ की योगक्रिया हो जाती तथा तमिल विद्वान् श्रीरङ्गम् में हुए। इस वर्ग का प्रधान कार्य 'नालाभिर प्रबन्धम्' का पठन था। अनेक है । नाथपन्थ में 'ऊर्ध्वरेता' या अखण्ड ब्रह्मचारी होना सबसे अधिक महत्त्व की बात है । मांस-मद्यादि सभी तामभाष्य इस पर रचे गये । 'न्यायतत्त्व' तथा 'योगरहस्य' नामक दो और ग्रन्थ इनके रचे कहे जाते हैं। सिक भोजनों का पूरा निषेध है । यह पन्थ चौरासी सिद्धों के तान्त्रिक वज्रयान का सात्त्विक रूप में परिपालक नाथसम्प्रदाय-जब तान्त्रिकों और सिद्धों के चमत्कार एवं प्रतीत होता है। अभिचार बदनाम हो गये, शाक्त मद्य, मांसादि के लिए। उनका तात्त्विक सिद्धान्त है कि परमात्मा केबल' है। तथा सिद्ध, तान्त्रिक आदि स्त्री-सम्बन्धी आचारों के उसी परमात्मा तक पहुँचना मोक्ष है। जीव का उससे कारण घृणा की दृष्टि से देखे जाने लगे तथा जब इनकी चाहे जैसा सम्बन्ध माना जाय, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि यौगिक क्रियाएँ भी मन्द पड़ने लगी, तब इन यौगिक से उससे सम्मिलन ही कैवल्य मोक्ष या योग है। इसी क्रियाओं के उद्धार के लिए ही उस समय नाथ सम्प्रदाय जीवन में इसकी अनुभूति हो जाय, पन्थ का यही लक्ष्य का उदय हुआ। इसमें नव नाथ मुख्य कहे जाते हैं : गोरक्ष है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रथम सीढ़ी काया की नाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, कारिणनाथ, गहिनीनाथ, चर्पटनाथ, साधना है। कोई काया को शत्रु समझकर भाँति-भांति रेवणनाथ, नागनाथ, भर्तृनाथ और गोपीचन्द्रनाथ । के कष्ट देता है और कोई विषयवासना में लिप्त होकर गोरक्षनाथ ही गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध है । दे० उसे अनियंत्रित छोड़ देता है। परन्तु नाथपंथी काया को 'गोरखनाथ' । परमात्मा का आवास मानकर उसकी उपयुक्त साधना इस सम्प्रदाय के परम्परासंस्थापक आदिनाथ स्वयं करता है । काया उसके लिए वह यन्त्र है जिसके द्वारा शङ्कर के अवतार माने जाते हैं । इसका सम्बन्ध रसेश्वरों वह इसी जीवन में मोक्षानुभूति कर लेता है, जन्म-मरणसे है और इसके अनुयायी आगमों में आदिष्ट योग साधन जीवन पर पूरा अधिकार कर लेता है, जरा-मरण-व्याधि करते हैं । अतः इसे अनेक इतिहासज्ञ शैव सम्प्रदाय मानते और काल पर विजय पा जाता है। है । परन्तु और शवों की तरह ये न तो लिङ्गार्चन करते हैं इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह पहले काया शोधन और न शिवोपासना के और अङ्गों का निर्वाह करते हैं। करता है। इसके लिए वह यम, नियम के साथ हठयोग किन्तु तीर्थ, देवता आदि को मानते हैं, शिवमन्दिर और के षट् कर्म ( नेति, धौति, वस्ति, नौलि, कपालभाति देवीमन्दिरों में दर्शनार्थ जाते है । कैला देवीजी तथा हिंग- और त्राटक ) करता है कि काया शुद्ध हो जाय । यह लाज माता के दर्शन विशेषतः करते हैं, जिससे इनका शाक्त नाथपन्थियों का अपना आविष्कार नहीं है। हठयोग पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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