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________________ नकुलीशपाशुपत-नक्षत्र ३४५ (२) पाण्डवों में से चौथे भाई का नाम नकुल है। पर आश्रित रहना चाहिए, तदनन्तर तिलमिश्रित खाद्य नकूलीश पाशपत-नकलीश शब्द में 'ल' को 'न' वर्णादेश) पदार्थों से व्रत की पारणा एक वर्ष पर्यन्त करनी चाहिए । माधवाचार्य (चौदहवीं शती वि० का पूर्वार्द्ध) अपने 'सर्व- नक्तवत-एक दिवारात्रि का व्रत । उस तिथि को इसका आचदर्शनसंग्रह' में तीन शैव सम्प्रदायों का वर्णन करते हैं- रण करना चाहिए जिस दिन वह तिथि सम्पूर्ण दिन तथा नकुलीश पाशुपत, शैवसिद्धान्त एवं प्रत्यभिज्ञा । उनके अनु- रात्रि में व्याप्त रहे (निर्णयामृत, १६-१७)। नक्त का सार आचार्य नकुलीश शङ्कर द्वारा वर्णित पाँच तत्त्वों की तात्पर्य है 'दिन में पूर्ण उपवास किन्तु रात्रि में भोजन ।' शिक्षा देते हैं-कार्य, कारण, भोग, विधि तथा दुःखान्त, नक्तव्रत एक मास, चार मास अथवा एक वर्ष तक बढ़ाया जैसा कि 'पञ्चार्थविद्या' नामक ग्रन्थ में बतलाया गया है। जा सकता है। श्रावण से माघ तक नक्त व्रत के लिए 'लकुलिन्' का अर्थ है जो लकुल ( गदा ) धारण करता दे० लिङ्गपुराण (१.८३.३-५४); एक वर्ष तक नक्त व्रत हो। पुराणाख्यानों के अनुसार शिव योगशक्ति से एक के लिए दे० नारदपुराण (२.२.४३)। मृतक में प्रवेश कर गये तथा यह उनका लकुलीश अवतार नक्षत्र-नक्षत्रों का वैदिक यज्ञों और अन्य धार्मिक कृत्यों के कहलाया। यह घटनास्थल कायावरोहण या कारोहण साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसलिए ज्योतिष शास्त्र को ( कायारोहण ) कहलाता है जो गुजरात के लाट प्रदेश वेदाङ्ग माना जाता है। नक्षत्र शब्द की उत्पत्ति अस्पष्ट में है। लकुली द्वारा (जो सम्भवतः प्रथम शताब्दी ई० में है। इसके प्राथमिक अर्थ के बारे में भारतीय विद्वानों पञ्चाध्यायी के रचयिता थे) स्थापित सिद्धान्तों से ही पर- के विभिन्न मत हैं। शतपथ ब्राह्मण (२.१, २,१८-१९) वर्ती 'शैवसिद्धान्त' का जन्म हुआ। इसका विच्छेद 'न + क्षत्र' ( शक्तिहीन ) कर उसकी व्याख्या एक कथा के आधार पर करता है। निरुक्त . इस प्रधान शाखा में माधवाचार्य के मतानुसार शिव इसकी उत्पत्ति नक्षु (प्राप्ति करना ) धातु से मानता है के साथ जीवात्मा के एकत्व प्राप्त करने की साधना की और इस प्रकार तैत्तिरीय ब्राह्मण का अनुकरण करता है । जाती है । पवित्र मन्त्रोच्चारण, ध्यान तथा सभी कर्मों से मुक्ति द्वारा पहले 'संविद्' (वेदना) प्राप्त की जाती है। ऑफ्रेख्ट तथा वेबर इसे 'नक्त + त्र' (रात्रि के संरक्षक) से बना मानते हैं तथा आधुनिक लोग 'नक् + क्षत्र' साधक योगाभ्यास से फिर अनेक रूप धारण करने तथा शव से सन्देश प्राप्त करने की शक्ति प्राप्त करता है । गीत, (रात्रि के ऊपर अधिकार) इसका अर्थ करते हैं, जो अधिक मान्य लगता है और इस प्रकार इसका वास्तविक नृत्य, हास्य, प्रेम सम्बन्धी संकेतों को जगाने, विमोहितावस्था में बोलने, राख लपेटने तथा मन्दिरों के फूलों को अर्थ 'तारा' ज्ञात होता है । __ ऋग्वेद के सूक्तों में इसका प्रयोग 'तारा' के रूप में धारण करने एवं पवित्र मन्त्र 'हुम्' के दीर्घ उच्चारण से हुआ है। परवर्ती संहिताओं में भी इसका यही अर्थ है, धार्मिक भक्ति भावना जगायी जाती है। कालामुखों की जहाँ सूर्य और नक्षत्र एक साथ प्रयुक्त हैं, अथवा सूर्य, विधि (आचार) नकुलीश पाशुपत विधि से मिलती चन्द्र तथा नक्षत्र या चन्द्र तथा नक्षत्र अथवा नक्षत्र अकेले जुलती है। प्रयुक्त है। किन्तु इसका अर्थ कहीं भी आवश्यक रूप से नक्कीरदेव-इनका जीवनकाल पाँचवीं या छठी शताब्दी 'चन्द्रस्थान' नहीं है। किन्तु ऋग्वेद में कम-से-कम तीन है। इस काल के तमिल शैवों के बारे में बहुत ही कम नक्षत्र 'चन्द्रस्थान' के अर्थ में प्रयुक्त हैं। तिष्य का ज्ञात हुआ है । उनका कोई साहित्य प्राप्त नहीं है । नक्कीर प्रयोग चन्द्रस्थान के रूप में नहीं ज्ञात होता, किन्तु अघाओं देव तमिल लेखक थे, जिन्होंने केवल एक प्रसिद्ध ग्रन्थ (बहबचन) तथा अर्जुनियों (द्विवचन ) के साथ इसका 'तिरुमुरुत्तुप्पदइ' लिखा है । यह पद्य में है तथा 'मुरुइ' दूसरा ही अर्थ होता है। हो सकता है कि यहाँ वे परवर्ती अथवा 'सुब्रह्मण्य' नामक देवता के सम्मान में रचा 'चन्द्रस्थान' हों जिन्हें मधा ( बहुवचन ) तथा फल्गुनी गया है। (द्विवचन) कहा जाता हो। नामों का परिवर्तन ऋग्वेद में नक्तचतुर्थी-मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का प्रारम्भ स्वतंत्रता से हुआ है। लुडविग तथा जिमर ने ऋग्वेद में होता है, इसके देवता विनायक है। व्रती को नक्त भोजन नक्षत्रों के २७ सन्दर्भ देखे हैं, किन्तु यह असंभव जान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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