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________________ धर्मषष्ठो-धान्यसंक्रान्तिव्रत ३४१ उचित आचार-व्यवहारव्यवस्था और समाज के शासन रीय आरण्यक ( ५.४,३३ ) में धवित्र की चर्चा हुई के निमित्त नीति और सदाचार सम्बन्धी नियम स्पष्टता- है। इसका अर्थ यहाँ 'पंखा' है, जो चमड़े का बना होता पूर्वक दियं रहते हैं। धर्मशास्त्र के विविध स्तरों की सूची था और यज्ञाग्नि को उद्दीप्त करने के लिए इसका प्रयोग में धर्मसूत्र, स्मृति, भाष्य, निबन्ध आदि सम्मिलित है। होता था। म० म० पाण्डुरङ्ग वामन काणे ने अपने 'धर्मशास्त्र के धात्रीनवमी-कार्तिक शक्लपक्ष की नवमी। इस दिन आँवले इतिहास' (जि०१ ) में धर्मशास्त्र के अन्तर्गत शुद्ध राज- के पेड़ का ब्रह्मा के रूप में पूजन होता है और उसके नीचे नीति के ग्रन्थों ( अर्थशास्त्र ) को भी सम्मिलित कर बैठकर भोजन करने का विधान है । आँवले (आमलक) का लिया है। एक नाम 'धात्री फल' है। विश्वास यह है कि चाहे माता धर्मषष्ठी-आश्विन कृष्ण षष्ठी को इसका प्रारम्भ होता भले ही अप्रसन्न हो जाय किन्तु आमलकी नहीं अप्रसन्न है। इसमें धर्मराज की पूजा विहित है। होती। उसके दैवीकरण के आधार पर यह व्रत प्रचधर्मसूत्र-'कल्प' वेदाङ्ग के अन्तर्गत सत्र ग्रन्थ चार प्रकार लित हुआ है। के हैं, जिनका धार्मिक तथा व्यावहारिक जीवन में बड़ा धात्रीव्रत-फाल्गुन मास के दोनों पक्षों की एकादशी को महत्त्व है। ये हैं श्रौत, गृह्य, धर्म तथा रचना विषयक । इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें आमलक के फलों धर्मसूत्र पाँच हैं : (१) आपस्तम्ब, (२) हिरण्यकेशी, (३) से स्नान का विधान है। दे० पद्मपुराण, ५.५८.१.११ । बौधायन, (४) गौतम और (५) वसिष्ठ । ये धर्मसूत्र यज्ञों भगवान् वासुदेव को धात्रीफल अत्यन्त प्रिय है । इसके का वर्णन न कर आचार-व्यवहार आदि का वर्णन करते भक्षण से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है । है। धर्मसूत्रों में धार्मिक जीवन के चारों वर्णों (ब्राह्मण, धान्यसप्तक-सात प्रकार के धान्यों के संयोग को 'धान्यक्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) तथा चारों आश्रमों (ब्रह्मचर्य, सप्तक' कहा गया है। इनमें जौ, गेहूँ, धान, तिल, कंग गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास) का वर्णन है। साथ ही (भयप्रद बीज), श्यामाक तथा चीनक की गणना है । निम्नलिखित विशेष विषय भी हैं-राजा, व्यवहार के दे० हेमाद्रि, १.४८। कृत्यरत्नाकर, ७० के अनुसार चीनक नियम, अपराध के नियम, विवाह, उत्तराधिकार, अन्त्येष्टि के स्थान पर 'देवधान्य' का उल्लेख है। गोभिलस्मृति क्रियाएँ, तपस्या आदि । प्रारम्भ में विशेष धर्मसूत्रों का (३.१०७) के अनुसार सात धान्यों के नाम भिन्न ही हैं । प्रयोग अपनी-अपनी शाखा के लिए ही किया जाता था, विष्णुपुराण, १.६.२१-२२; वायु, ८.१५०-१५२ तथा किन्तु पीछे उनमें से कुछ सभी द्विजों द्वारा प्रयुक्त होने मार्कण्डेय, ४६.६७-६९ ( वेंकटेश्वर संस्करण ) ने सत्रह लगे । आचारिक विधि का मूल आधार है वर्णव्यवस्था के धान्यों के नाम गिनाये हैं तथा व्रतराज (पृ० १७) ने अनुकूल कर्त्तव्यपालन । व्यवहार अथवा अपराध की अठारह धान्य बतलाये है । धार्मिक कार्यों के लिए ये धान्य विधियों पर भी इस वर्णव्यवस्था का प्रभाव है। विभिन्न (अनाज) पवित्र माने जाते हैं। वर्गों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के दण्ड हैं। हिंसा के धान्यसप्तमो-शुक्ल पक्षीय सप्तमी को धान्यसप्तमी कहा अपराधों में ब्राह्मण की अपेक्षा इतर वर्ण वालों को एक जाता है। इस तिथि को सूर्यपूजन, नक्त पद्धति का अनुही प्रकार के अपराध करने पर कड़ा दण्डविधान है। सरण, सप्त धान्यों तथा रसोई के पात्र एवं नमक के इसके विपरीत लोभ के अपराधों में वर्णोत्कर्षक्रम से दान का विधान है। इससे व्रती स्वयं की तथा सात पीढ़ियों ब्राह्मण के लिए अधिक कड़े दण्ड का विधान है। तक की रक्षा कर लेता है। धर्मावाप्तिवत-यह व्रत आषाढी पूर्णिमा के उपरान्त प्रति- धान्यसंक्रान्तिव्रत-दोनों अयन दिवसों अथवा विषुव पदा से प्रारम्भ होकर एक मास तक चलता है । धर्म के दिवसों को इस व्रत का आरम्भ होता है । एक वर्ष पर्यन्त रूप में भगवान हरि का पूजन होता है। इससे समस्त इसका अनुष्ठान किया जाता है । केसर से अष्टदल कमल कामनाओं की पूर्ति होती है। की आकृति बनाकर प्रत्येक दल की, सूर्य के आठ नामों धवित्र-यज्ञाग्नि को उद्दीप्त करने का उपकरण (व्यजन)। को लेकर, पूर्वाभिमुख बढ़ते हुए स्तुति की जाती है । शतपथ ब्राह्मण ( १४.१,३,३०; ३,१,२१ ) तथा तैत्ति- इसमें सूर्य का पूजन होता है, तदनन्तर एक प्रस्थ धान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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