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________________ ३४० धर्मघटवान-धर्मशास्त्र संस्कृति उसका क्रियात्मक रूप है; धर्मानुकूल आचरण का वैष्णवचिह्न कण्ठी-तिलक आदि भी धारण करते रहे, जो शिष्य सन्तों में अब भी प्रचलित हैं। धर्म आत्मा और अनात्मा का, जीवात्मा और शरीर । धर्मप्राप्ति व्रत-आषाढ़ी पूर्णिमा के पश्चात् प्रतिपदा से यह व्रत प्रारम्भ होता है। धर्म के रूप में भगवान् विष्णु का विधायक है; संस्कार हर जीवात्मा और हर शरीर का विकास करने वाला है। धर्म व्यक्ति की तरह समाज की पूजा एक मास तक होती है। मासान्त में पूर्णिमा सहित तीन दिन तक उपवास तथा सुवर्ण का दान का भी विधायक है : 'धर्मो धारयति प्रजाः' । संस्कार विहित है। समाज का विकास करने वाला है, उसे ऊँचा उठाने वाला धर्मराज अध्वरीन्द्र-'वेदान्तपरिभाषा' नामक लोकप्रिय है । दोष, पाप, दुष्कृत अधर्म हैं। इन्हें दूर करने का साधन ग्रन्थ के प्रणेता । सप्रसिद्ध अद्वैतवादी ग्रन्थरचयिता नसिंहासंस्कार है । अज्ञान अधर्म है, इसे दूर करने वाले शिक्षादि संस्कार हैं। भारत में धर्म और संस्कृति का अटूट सम्बन्ध श्रम स्वामी उनके परम गुरु थे। नृसिंहाश्रम स्वामी के रहा है। शिष्य वेङ्कटनाथ थे और वेङ्कटनाथ के शिष्य धर्मराज । नृसिंहाश्रम सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्यमान थे, धर्म के अन्य वर्गीकरण भी पाये जाते हैं : नित्य, इसलिए धर्मराज का स्थितिकाल सत्रहवीं शताब्दी होना नैमित्तिक, काम्य, आपद्धर्म आदि । नित्य वह धार्मिक सम्भव है। धर्मराज अध्वरीन्द्र के ग्रन्थों में वेदान्तपरिभाषा कार्य है जिसका करना अनिवार्य है और जिसके न करने प्रधान है। यह अद्वैत सिद्धान्त का अत्यन्त उपयोगी से पाप होता है। नैमित्तिक धर्म को विशेष अवसरों पर प्रकरण ग्रन्थ है। इसके ऊपर बहुत-सी टीकाएँ हुई हैं । करना आवश्यक है। काम्यधर्म वह है जो किसी विशेष उद्देश्य भिन्न-भिन्न स्थानों से इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो की सिद्धि के लिए किया जाता है परन्तु जिसके न करने चुके हैं । अद्वैत वेदान्त का रहस्य समझने में इसका अध्यसे कोई दोष नहीं होता। आपद्धर्म वह है जो संकट यन बहुत उपयोगी है। इसके सिवा उन्होंने गङ्गेशोपाकी स्थिति में सामान्य और विशिष्ट धर्म को छोड़कर ध्याय कृत 'तत्त्वचिन्तामणि' नामक नव्य न्याय के ग्रन्थ करना पड़ता है। शास्त्र के नियमानुकूल आपद्धर्म का पर 'तभूषामणि' नाम की टीका भी लिखी है। उसमें पालन करने से दोष नहीं होता है। पूर्ववत्तिनी दस टीकाओं के मत का खण्डन किया गया है । धर्मघटदान-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ कर चार मास धर्मराजपूजा-इस व्रत में दमनक पौधे से धर्म का पूजन तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है । जो पुण्यों का इच्छुक होता है । इसके लिए दे० 'दमनकपूजा ।' हो उसे प्रति दिन वस्त्र से आच्छादित, शीतल जल से परि- धर्मव्रत-मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी को यह व्रत प्रारम्भ होता पूर्ण कलश का दान करना चाहिए। है। उस दिन उपवास करते हए धर्म का पूजन करना धर्मदास-कबीरपथ सम्प्रदाय के शिक्षक व पथ प्रदर्शक चाहिए। घी से हवन का विधान है । एक वर्ष तक इसका कबीरपंथी साधु ही होते हैं। ये साधु दो स्थानों के अनुष्ठान होता है। व्रत के अन्त में गाय का दान विहित है। इससे सुस्वास्थ्य, दीर्घायु, यश की प्राप्ति तथा पापों महन्तों से शासित होते हैं। एक की गद्दी कबीरचौरा मठ ( वाराणसी, उ० प्र०) है तथा दूसरे की छत्तीसगढ़ से छुटकारा होता है। धर्मशास्त्र-साधारण बोलचाल में 'श्रुति' शब्द से समस्त (मध्य प्रदेश)। कबीरचौरा मठ वाले सन्त अपना प्रारम्भ वैदिक साहित्य का ग्रहण होता है। इसके साथ विभेदमहात्मा सुरतगोपाल से तथा छत्तीसगढ़ वाले 'धर्मदास' नामक महात्मा से मानते है। छत्तीसगढ़ (दक्षिण कोसल) वाचक 'स्मृति' शब्द का प्रयोग होता है जिससे 'धर्मशास्त्र' में कबीरपन्थ के प्रसार का श्रेय धर्मदास को ही प्राप्त है। का बोध होता है। वेद के चार उपाङ्गों में से धर्मशास्त्र एक है। धर्मशास्त्र वेदाङ्गीय सूत्रग्रन्थों का आनुषङ्गिक महात्मा धर्मदास पहले निम्बार्कीय वैष्णव थे। कबीर विस्तार है। इस अर्थ में ही धर्मसूत्र धर्मशास्त्र के प्राथके उपदेशों से प्रभावित होकर इन्होंने 'धर्मदासी शाखा' मिक अङ्ग हैं। विशिष्ट अर्थ में स्मृति शब्द से धर्मशास्त्र का प्रचारात्मक नेतृत्व ग्रहण कर लिया, साथ ही वे के उन्हीं ग्रन्थों का बोध होता है जिनमें प्रजा के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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