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________________ अतीन्द्रिय-अथर्ववेद अतीन्द्रिय-नैयायिकों के मत से परमाण अतीन्द्रिय हैं: ऐन्द्रिय नहीं। उन्हें ज्ञानेन्द्रियों से नहीं देखा अथवा जाना जा सकता है। वे केवल अनुमेय हैं। आत्मा, परमात्मा अथवा परम तत्त्व भी अतीन्द्रिय हैं। अत्याधमी--प्रथम तीनों आश्रमों से श्रेष्ठ आश्रम में रहने वाला-संन्यासी।वह आत्मा को पूर्णतः जानता है तथा अपने व्यक्तिगत जीवन से मुक्त है। परिवार, सम्पदा एवं संसार से सम्बन्ध विच्छेद कर चुका है एवं वह उसे प्राप्त कर चुका है जिसकी केवल परिव्राजक योगी ही इच्छा रखते हैं। अत्रि--ऋग्वेद का पञ्चम मण्डल अत्रि-कुल द्वारा संगृहीत है। कदाचित् अत्रि-परिवार का प्रियमेध, कण्व, गोतम एवं काक्षीवत कूलों से निकट सम्बन्ध था। ऋग्वेद के पञ्चम मण्डल के एक मन्त्र में परुष्णी एवं यमुना के उल्लेख से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह परिवार विस्तृत क्षेत्र में फैला हआ था। अत्रि गोत्रप्रवर्तक ऋषि भी थे। मुख्य स्मृतिकारों की तालिका में भी अत्रि का नाम आता है। अत्रिस्मति-यह ग्रन्थ प्राचीन स्मृतियों में है। इसका उल्लेख मनुस्मृति (३.१३) में हआ है। 'आत्रेय धर्मशास्त्र', 'अत्रिसंहिता' तथा अविस्मति नाम के ग्रन्थ भी पाये जाते हैं। अथर्वा-वेदकालीन विभिन्न पुरोहितकुलों की तरह ही यह एक कुल था। एकवचन में अथर्वा नाम परिवार के अध्यक्ष का सूचक है, किन्तु बहुवचन में 'अथर्वाणः' शब्द से सम्पूर्ण परिवार का बोध होता है। कुछ स्थानों में एक निश्चित परिवार का उद्धरण प्राप्त होता है। दानस्तुति में इन्हें अश्वत्थ की दया का दान ग्रहण करने वाला कहा गया है एवं यज्ञ में इनके द्वारा मधुमिश्रित पय का प्रयोग करने का विवरण है। अथर्व-प्रातिशाख्य-भिन्न-भिन्न वेदों के अनेक प्रकार के स्वरों के उच्चारण, पदों के क्रम और विच्छेद आदि का निर्णय शाखा के जिन ग्रन्थों द्वारा होता है, उन्हें 'प्राति- शाख्य' कहते हैं। अत्यन्त प्राचीन काल में ऋषियों ने वेदाध्ययन के स्वरादि का विशेषता से निश्चय करके अपनी अपनी गाखा की परम्परा चलायी थी। जिस व्यक्ति ने जिस शाखा से वेदपाठ सीखा वह उसी शाखा की वंशपरम्परा का सदस्य कहलाया। बाह्मणों की गोत्र-प्रवरशाखा आदि की परम्परा इसी तरह चल पड़ी। बहुत काल बीतने पर इस भेद को स्मरण रखने के लिए और अपनीअपनी रीति की रक्षा के लिए प्रातिशाख्य ग्रन्थ बनाये गये । इन्हीं प्रातिशाख्यों में शिक्षा और व्याकरण दोनों पाये जाते हैं । 'अथर्व-प्रातिशाख्य' दो मिलते हैं, इनमें एक 'शौनकीय चतुरध्यायिका' है जिसमें (१) ग्रन्थ का उद्देश्य, परिचय और वृत्ति, (२) स्वर और व्यञ्जन-संयोग, उदात्तादि लक्षण, प्रगृह्य, अक्षर विन्यास, युक्त वर्ण, यम, अभिनिधान, नासिक्य, स्वरभक्ति, स्फोटन, कर्षण और वर्णक्रम, (३) संहिताप्रकरण, (४) क्रम-निर्णय, (५) पदनिर्णय और (६) स्वाध्याय की आवश्यकता के सम्बन्ध में उपदेश, ये छः विषय बताये जाते हैं । अथर्ववेद-चारों वेदों के क्रम में अथर्ववेद का नाम सबसे अन्त में आता है। यह प्रधानतः नौ संस्करणों में पाया जाता है-पप्पलाद, शौनकीय, दामोद, तोत्रायन, जामल, ब्रह्मपालाश, कुनखा, देवदर्शी और चरणविद्या। अन्य मत से उन संस्करणों के नाम ये हैं-पप्पलाद, आन्ध्र, प्रदात्त, स्नात, श्नौत, ब्रह्मदावन, शौनक, देवदर्शती और चरणविद्या। इनके अतिरिक्त तैत्तिरीयक नाम के दो प्रकार के भेद देख पड़ते हैं, यथा औरव्य और काण्डिकेय । काण्डिकेय भी पाँच भागों में विभक्त हैं-आपस्तम्ब, वौधायन, सत्यावाची, हिरण्यकेशी और औधेय । ___अथर्ववेद की संहिता अर्थात् मन्त्रभाग में बीस काण्ड हैं । काण्डों को अड़तीस प्रपाठकों में विभक्त किया गया है। इसमें ७६० सूक्त और ६००० मन्त्र हैं। किसी-किसी शाखा के ग्रन्थ में अनुवाक विभाग भी पाये जाते हैं। अनुवाकों की संख्या ८० है । यद्यपि अथर्ववेद का नाम सब वेदों के बाद आता है तथापि यह समझना भूल होगी कि यह वेद सबसे पीछे बना । वैदिक साहित्य में अन्यत्र भी 'आथर्वण' शब्द आया है और पुरुषसूक्त में छन्द शब्द से अथर्ववेद ही अभिप्रेत जान पड़ता है । कुछ लोगों का कहना है कि ऋक्, यजु और साम ये ही त्रयी कहलाते हैं और अथर्ववेद त्रयी से बाहर है। पाश्चात्य विद्वान् कहते हैं कि अथर्ववेद अन्य वेदों से पीछे बना। परन्तु ऋक्, यजु और साम तीनों अलग ग्रन्थ नहीं मन्त्र-रचना की प्रणाली मात्र हैं। इनसे वेद के तीन संहिता विभागों की सूचना नहीं होती। यज्ञकार्य को अच्छे प्रकार से चलाने के लिए ही चार संहिताओं का विभाग किया गया है। ऋग्वेद होता के लिए है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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