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________________ ३०८ त्रिवेन्द्रम्-यम्बकहोम भी, जो राजस्थान के मरुस्थल में लुप्त हो जाती है, पृथ्वी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में उन्होंने मनुष्य के लिए इन्हीं तीन के नीचे-नीचे आकर उनसे मिल जाती है। हिन्दू धर्म में पवित्र तीर्थस्थानों की यात्रा का महत्त्व बतलाया है । नदियाँ पवित्र मानी जाती हैं, दो नदियों का सङ्गम और वस्तुतः इन तीनों स्थलों का सम्यक् सुकृत समाहार ही अधिक पवित्र माना जाता है और तीन नदियों का सङ्गम किसी तीर्थयात्री की यात्रा का मूल उत्स है। यदि इन तो और भी अधिक पवित्र समझा जाता है। यहाँ पर तीनों स्थलों की यात्रा उसने नहीं की तो उसकी तीर्थस्नान और दान का विशेष महत्त्व है। यात्रा व्यर्थ है। 'त्रिस्थलीसेतु' के आनन्दाश्रम संस्करण त्रिवेन्द्रम्-यह तीर्थस्थान केरल प्रदेश में है। यह वैष्णव में प्रयाग का विवरण पृष्ठ १ से ७२ तक, काशी का तीर्थ है । नगर का शुद्ध नाम 'तिरुअनन्तपुरम्' है। पुराणों विवरण पृष्ठ ७३ से ३१६ तक तथा गया का विवरण में इस स्थान का नाम 'अनन्तवनम्' मिलता है। प्राचीन पृष्ठ ३१७ से ३७९ तक दिया गया है। त्रावणकोर राज्य तथा वर्तमान केरल प्रदेश की यह राज- त्रिसम-दालचीनी, इलायची और पत्रक को त्रिसम कहा धानी है। स्शन से आधे मील पर यहाँ के नरेश का जाता है । दे० हेमाद्रि, १४३ । इसका भैषज्य और धार्मिक राजप्रासाद है। भीतर पद्मनाभ भगवान् का मन्दिर है। क्रियाओं में उपयोग होता है। पूर्व भाग में स्वर्णमंडित गरुडस्तम्भ है। दक्षिण भाग में त्रिसुगन्ध-दालचीनी, इलायची तथा पत्रक के समान भाग शास्ता ( हरिहरपुत्र ) का छोटा मन्दिर है। उत्सव को त्रिसुगन्ध भी कहते हैं। धार्मिक क्रियाओं में इनका विग्रह के साथ श्रीदेवी, भूदेवी, लीलादेवी को मूर्तियाँ प्रायः व्यवहार होता है। विराजमान हैं । शास्त्रीय विधि के अनुसार द्वादश सहस्र त्र्यणुक-वैशेषिक दर्शन अणुवादमूलक भौतिकवादी है । ( १२००० ) शालग्राम मूर्तियाँ भीतर रखकर “कटुशर्कर योग" नामक मिश्रण विशेष से भगवान् पद्मनाभ द्रव्यों के नौ प्रकार इसमें मान्य हैं। उनमें प्रथम चार का वर्तमान विग्रह निर्मित हुआ है। पद्मनाभ ही त्रावण परमाणुओं के प्रकार हैं । प्रत्येक परमाणु अपरिवर्तनशील कोर (केरल) के अधिपति माने जाते है । राजा भी उनका एवं अन्तिम सत्ता है। ये चार प्रकार के गुण रखते हैं, प्रतिनिधि मात्र होता था। यथा गंध, स्वाद, ताप, प्रकाश (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि के अनुसार )। दो परमाणु मिलकर 'द्वयणुक' बनाते हैं त्रिशकु-तैत्तिरीय उपनिषद् में वर्णित एक आचार्य तथा तथा ऐसे दो अणुओं के मिलन से 'त्र्यणुक' बनते है । वैदिक साहित्य के एक राजऋषि । परवर्ती साहित्य के ये त्र्यणुक ही वह सबसे छोटी इकाई है, जिसमें विशेष अनुसार त्रिशङ्क एक राजा का नाम है। विश्वामित्र ने गुण होता है और जो पदार्थ कहा जा सकता है। इसको सदेह स्वर्ग भेजने की चेष्टा की, परन्तु वसिष्ठ ने त्र्यम्बक-तीन अम्बक ( नेत्र) वाला ( अथवा तीन माता अपने मन्त्रबल से उसको आकाश में ही रोक दिया। तब से त्रिशङ्क एक तारा के रूप में अधर में ही लटका हुआ है। वाला )। यह शिव का पर्याय है । 'महामृत्युञ्जय' मन्त्र के त्रिशक्तितन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में दी गयी ६४ तन्त्रों जप में शिव के इसी रूप का ध्यान किया जाता है। की सूची में यह ४३वाँ तन्त्र है । त्र्यम्बकवत-चतुर्दशी तिथि को भगवान् शङ्कर के प्रीत्यर्थ त्रिशिखिब्राह्मण उपनिषद्-यह एक परवर्ती उपनिषद् है। यह व्रत किया जाता है। प्रत्येक वर्ष के अन्त में एक त्रिशोक-एक पुराकालीन ऋषि, जिसका उल्लेख ऋग्वेद गोदान करते हुए मनुष्य शिवपद प्राप्त करता है । दे० (१.११२,१३; ८.४५,३० तथा १०.२९,२) तथा अथर्व हरिवंश, २.१४७ । वेद ( ४.२९,६) में हुआ है । पञ्चविंश ब्राह्मण में उसके व्यम्बकहोम-'साकमेध' के अन्तर्गत, जो चातुर्मास्ययज्ञ नाम से सम्बन्धित एक साम का प्रसंग है। का तृतीय पर्व है उसमें पितृयज्ञ का विधान है। इसी यज्ञ त्रिस्थली-भारत के तीन श्रेष्ठ तीर्थ प्रयाग, काशी और का दूसरा भाग है 'त्र्यम्बकहोम' जो रुद्र के लिए किया गया विद्वानों द्वारा 'त्रिस्थली' के नाम से अभिहित किये जाता है। इसका उद्देश्य देवता को प्रसन्न करना तथा गये हैं। नारायण भट्ट ने १६३७ वि० में वाराणसी में उन्हें दूसरे लोगों के पास भेजने के लिए तैयार करना है, 'त्रिस्थलीसेतू' नाम का एक ग्रन्थ लिखा था। इस जिससे यज्ञकर्ता को कोई हानि न हो। भौतिक उत्पात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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