SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मज्ञान-अणु १७ या परिमिति के आरोप के कारण होती है। कुछ अन्य अणु-(१) सबसे प्राचीन दार्शनिक ग्रन्थ उपनिषदों में वेदान्ती इन तीनों वादों के स्थान पर 'बिम्ब-प्रतिबिम्बवाद' अणुवाद अथवा अणु का उल्लेख अप्राप्य है। इसी कारण उपस्थित करते हैं और कहते हैं कि ब्रह्म प्रकृति अथवा अणुवाद का उल्लेख वेदान्तसूत्रों में भी नहीं हुआ है, क्योंकि माया के बीच अनेक प्रकार से प्रतिबिम्बित होता है जिससे उनकी दार्शनिक उद्गम-भूमि उपनिषद् ही हैं । अणुवाद नाम-रूपात्मक दृश्यों की प्रतीति होती है। अन्तिम वाद का उल्लेख सांख्य एवं योग में भी नहीं मिलता । अणुवाद 'अज्ञातवाद' है, जिसे 'प्रौढिवाद' भी कहते हैं । यह सब वैशेषिक दर्शन का एक प्रमुख अङ्ग है एवं न्याय ने भी प्रकार की उत्पत्ति को, चाहे वह विवर्त के रूप में कही। इसे मान्यता प्रदान की है। जैनों ने भी इसे स्वीकार किया जाय चाहे दृष्टि-सृष्टि, अवच्छेद अथवा प्रतिबिम्ब है एवं अभिधर्मकोश-व्याख्या के अनुसार आजीवकों ने के रूप में: अस्वीकार करता है और कहता है कि जो भी। प्रारम्भिक बौद्धधर्म इससे परिचित नहीं है। पालि जैसा है वह वैसा ही है और सब ब्रह्म है । ब्रह्म अनिर्वच- बौद्ध ग्रन्थों में इसका उल्लेख नहीं हुआ है, किन्तु वैभाषिक नीय है, उसका वर्णन शब्दों द्वारा हो ही नहीं सकता, एवं सौत्रान्तिक इसको पूर्ण रूपेण मानने वाले थे। क्योंकि हमारे पास जो भाषा है वह द्वैत की ही है। न्याय-वैशेषिक शास्त्र के अनुसार प्रथम चार द्रव्य अर्थात् जो कुछ भी हम कहते हैं, वह भेद के आधार पर वस्तुओं का सबसे छोटा अन्तिम कण, जिसका आगे विभाजन ही । अतः मूल तत्त्व अज्ञात ही रहता है। नहीं हो सकता, अणु (परमाणु) कहलाता है । इसमें गन्ध, अज्ञान-ज्ञान का अभाव अथवा ज्ञान के विरुद्ध । अज्ञान के स्पर्श, परिमाण, संयोग, गुरुत्व, द्रवत्व, वेग आदि विभिन्न पर्याय है अविद्या, अहंमति आदि । श्रीमद्भागवत के अनु- गुण समाये रहते हैं । अत्यन्त सूक्ष्म होने से इसका इन्द्रियसार जगत के उत्पत्तिकाल में ब्रह्मा ने पाँच प्रकार के जन्य प्रत्यक्ष नहीं होता । इसकी सूक्ष्मता का आभास कराने अज्ञान को बनाया : (१) तम, (२) मोह, (३) महामोह, (४) के लिए कुछ स्थूल दृष्टान्त दिये जाते हैं, यथातामिस्र और (५) अन्धतामिस्र । वेदान्त के मत से अज्ञान जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः । सत् और असत् से अनिर्वचनीय और त्रिगुणात्मक भावरूप तस्य षष्टितमो भागः परमाणः स उच्यते ।। है । जो कुछ भी ज्ञान का विरोधी है उसे अज्ञान कहते हैं। मनु ने कहा है : बालानशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च । अज्ञानाद् वारुणी पीत्वा संस्कारेणव शुद्धयति । | घर के भीतर छिद्रों से आते हए सूर्यप्रकाश के बीच [ जो अज्ञान से मदिरा पी लेता है वह संस्कार करने । में उड़ने वाले कण का साठवाँ भाग; अथवा रोयें के अन्तिम पर ही शुद्ध होता है।] सिरे का हजारवाँ भाग परमाणु कहा जाता है। व्यवहारतः अज्ञानाद् बालभावाच्च साक्ष्यं वितथमुच्यते । वैशेषिकों की शब्दावली में 'अण' सबसे छोटा आकार [अज्ञान अथवा बालभाव के कारण जो भी साक्षी दी कहलाता है। अणुसंयोग से द्वयणुक, त्रसरेणु आदि बड़े जाती है वह सब झूठ होती है। होते चले जाते हैं। अणिमा-अष्ट सिद्धियों में से एक । अष्ट सिद्धियों के नाम जैन मतानुसार आत्मा एवं देश को छोड़कर सभी वस्तुएँ ये है : अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति , प्राकाम्य, ईशित्व, पुद्गल से उत्पन्न होती हैं। सभी पुद्गलों के परमाणु वशित्व और कामावसायिता। अणिमा का अर्थ है अणु अथवा अणु होते हैं । प्रत्येक अणु एक प्रदेश अथवा स्थान (सूक्ष्म) का भाव, जिसके प्रभाव से देवता, सिद्ध आदि घेरता है । पुद्गल स्थूल या सूक्ष्म रूप में रह सकता है। जब सूक्ष्म रूप धारण करके सर्वत्र विचरण करते हैं और जिन्हें यह सूक्ष्म रूप में रहता है तो अगणित अणु एक स्थूल कोई भी नहीं देख सकता । आगमों में सिद्धियों की गणना अणु को घेरे रहते हैं। अणु शाश्वत हैं। प्रत्येक अणु में इस प्रकार है : एक प्रकार का रस, गन्ध, रूप और दो प्रकार का स्पर्श अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा । होता है। ये विशेषताएँ स्थिर नहीं हैं और न बहुत से ईशित्वञ्च वशित्वञ्च तथा कामावसायिता ॥ अणुओं के लिए निश्चित है। दो अथवा अधिक अणु जो दे० 'सिद्धि' । चिकनाहट या खुरदरापन के गुण में भिन्न होते हैं आपस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy