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________________ १६ इकबीस सहस षटसा आदू पवन पुरिष जप माली । इला प्यङ्गुला सुषमन नारी अहनिसि बसै प्रनाली ॥ गोरखपंथ का अनुसरण करते हुए कबीर ने श्वास को 'ओहं' तथा 'प्रश्वास' को 'सोहं' बतलाया है । इन्हीं का निरन्तर प्रवाह अजपाजप है । इसी को 'निःअक्षर' ध्यान भी कहा है निह अक्षर जाप तहँ जाएँ । उठत धुन सुन्न से आये || (गोरखबानी) अजा-अजा का अर्थ है 'जिसका जन्म न हो प्रकृति अथवा आदि शक्ति के अर्थ में इसका प्रयोग होता है । 'सांख्यतत्वकौमुदी' में कहा गया है 'रक्त, शुक्ल और कृष्ण वर्ण की एक अजा (प्रकृति) को नमस्कार करता हूँ।' पुराणों में माया के लिए इस शब्द प्रयोग हुआ है । उपनिपदों में अजा का निम्नांकित वर्णन है अजामेकां लोहितकृष्णशुल बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाम् । अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्त भोगामजोऽन्यः ॥ ( श्वेताश्वतर ४.५ ) [ रन शुक्ल कृष्ण वर्ण वाली बहुत प्रजाओं का सर्जन करनेवाली सुन्दर स्वरूप युक्त अजा का एक पुरुष सेवन करता है तथा दूसरा अज पुरुष इसका उपभोग करके इसे छोड़ देता है । ] राजा, एक प्राचीन अजातशत्रु – काशी का जिसका बृहदारण्यक एवं कौषीतकि उपनिषद् में उल्लेख है । उसने आत्मा के सच्चे स्वरूप की शिक्षा अभिमानी ब्राह्मण बालाकि को दी थी । यह अग्निविद्या में भी परम प्रवीण था । अजा शक्ति एक ही अज पुरुष की अजा नामक महाशक्ति तीन रूपों में परिणत होकर सृष्टि, पालन और प्रलय की अधिष्ठात्री बनती हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद् की (४.५) पंक्तियों में उसी अजा शक्ति के तीन रूपों की चर्चा है। प्रकारान्तर से ऋषियों ने इस सृष्टिविद्या को तीन भागों में बाँटा है । वे महाशक्तियाँ महासरस्वती, महालक्ष्मी एवं महाकाली है इनसे ही क्रमशः सृष्टि, पालन एवं प्रलय की क्रियाएँ होती हैं । अजिर - पञ्चविंश ब्राह्मण में वर्णित सर्वोत्सव में अजिर सुब्रह्मण्य पुरोहित का उल्लेख पाया जाता है। अजैकपात् — एकादश रुद्रों के अन्तर्गत एक नाम । इसका Jain Education International अजा-अज्ञातवाद शाब्दिक अर्थ है 'अज के समान जिसका एक पाँव है ।' अज्ञात (पाप) - पाप दो प्रकार के होते हैं, पहला अज्ञात. दूसरा ज्ञात अज्ञात पाप का प्रायश्चित्त यज्ञादि से किया जा सकता है। प्रायश्चित्तकार्य यदि निष्काम भाव से किये गये हैं तो ये ईश्वर तक पहुँचते है तथा अक्षय फल प्रदान करते हैं। ज्ञात पाप के सम्बन्ध में कहा गया है। कि जब कोई भक्त निष्काम भक्ति में लगा हो तो वह ऐसा पाप करता ही नहीं, और यदि देवात् उससे पापकर्म हो भी जाय तो ईश्वर उसे बुरे कर्मों के पाप से क्षमा प्रदान करता है । अज्ञातवाद - जगत् और सृष्टि के सम्बन्ध में वेशन्तियों ने नैयायिकों के 'आरम्भवाद' (अर्थात् ईश्वर सृष्टि उत्पन्न करता है) और सांस्यों के 'परिणामवाद' (अर्थात् सृष्टि का विकास उत्तरोत्तर विकार या परिणाम द्वारा अव्यक्त प्रकृति से आप ही आप होता है) के स्थान पर 'विवर्त वाद' की स्थापना की हैं, जिसके अनुसार जगत् ब्रह्म का विवर्त या कल्पित रूप है । रस्सी को यदि हम सर्प समझें तो रस्सी सत्य वस्तु है और सर्प उसका विवर्त या भ्रान्तिजन्य प्रतीति है । इसी प्रकार ब्रह्म तो नित्य और वास्त विक सत्ता है और नामरूपात्मक जगत् उसका विवर्त है। यह विवर्त अध्यास के द्वारा होता है जो नाम-रूपात्मक दृश्य हम देखते हैं वह न तो ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप है, न कार्य या परिणाम ही है, क्योंकि ब्रह्म निर्विकार और अपरिणामी है। अध्यास के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि सर्प कोई अलग पदार्थ अवश्य है, तभी तो उसका आरोप होता है। अतः इस विषय को और स्पष्ट करने के लिए 'दृष्टिसृष्टिवाद' उपस्थित किया जाता है, जिसके अनुसार माया अथवा नाम-रूप मन की वृत्ति हैं। इनकी सृष्टि मन ही करता है और मन ही देखता है। ये नाम रूप उसी प्रकार मन या वृत्तियों के बाहर नहीं हैं, जिस प्रकार जड़-चित् के बाहर की कोई वस्तु नहीं है । इन वृत्तियों का शमन ही मोक्ष है । इन दोनों वादों में त्रुटि देखकर कुछ वेदान्ती 'अवच्छेदवाद' का आश्रय लेते हैं। वे कहते हैं कि ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् की जो प्रतीति होती है, वह एकरस अथवा अनवच्छिन्न सत्ता के भीतर माया द्वारा अवच्छेद For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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