SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९० ढौकन-तस्व गणेशजी को अर्पण करना चाहिए तथा बाद में प्रसाद शताब्दी में यह स्थान विद्यापीठ के रूप में पूर्ण रूप से रूप में वही ग्रहण करना चाहिए। तिल तथा घृत की प्रसिद्ध हो चुका था तथा राजगृह, काशी एवं मिथिला के आहुतियों से होम का विधान है। 'दण्डि' की व्युत्पत्ति के विद्वानों के आकर्षण का केन्द्र बन गया था। सिकन्दर के लिए दे० स्कन्दपुराण का काशीखण्ड, ५७.३२ तथा आक्रमण के समय यह विद्यापीठ अपने दार्शनिकों के लिए प्रसिद्ध था। पुरुषार्थचि०, ९५। ढोकन-किसी देवता के अर्पण के लिए प्रस्तुत नैवेद्य या __ कोसल के राजा प्रसेनजित के पुत्र तथा बिम्बिसार के राजवैद्य जीवक ने तक्षशिला में ही शिक्षा पायी थी। उपहार को 'ढीकन' कहते हैं । कुरु तथा कोसलराज्य निश्चित संख्या में यहाँ प्रति वर्ष छात्रों को भेजते थे। तक्षशिला के एक धनुःशास्त्र के ण-व्यञ्जनों का पन्द्रहवाँ तथा टवर्ग का पञ्चम अक्षर । विद्यालय में भारत के विभिन्न भागों से सैकड़ों राजकुमार कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है : युद्धविद्या सीखने आते थे । पाणिनि भी इसी विद्यालय के णकारं परमेशानि या स्वयं परकुण्डली । छात्र रहे होंगे। जातकों में यहाँ पढ़ाये जाने वाले विषयों पीतविद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा ।। में वेदत्रयी एवं अठारह कलाओं एवं शिल्पों का वर्णन पञ्चप्राणमयं देवि सदा त्रिगुणसंयुतम् । मिलता है । सातवीं शती में जब ह्वेनसाँग इधर भ्रमण आत्मादितत्त्वसंयुक्त महामोहप्रदायकम् ॥ करने आया तब इसका गौरव समाप्त प्राय था। फाहियान तन्त्रशास्त्र में इसके चौबीस नामों का उल्लेख पाया को भी यहाँ कोई शैक्षणिक महत्त्व की बात नहीं प्राप्त जाता है : हुई थी। वास्तव में इसकी शिक्षा विषयक चर्चा मौर्यकाल णो निर्गुणं रतिर्ज्ञानं जम्भनः पक्षिवाहनः । के बाद नहीं सुनी जाती। सम्भवतः बर्बर विदेशियों के जया शम्भो नरकजित निष्कला योगिनीप्रियः ।। आक्रमणों ने इसे नष्ट कर दिया, संरक्षण देना तो दूर की द्विमुखं कोटवी श्रोत्रं समृद्धिर्बोधिनी मता। बात थी। त्रिनेत्रो मानुषी व्योमदक्ष पादाङ्गुलेर्मुखः ।। तंजौर-कर्नाटक प्रदेश में कावेरी नदी के तट पर बसा माधवः शङ्खिनी वीरो नारायणश्च निर्णयः ।। हआ एक सांस्कृतिक नगर । चोलवंश के राजराजेश्वर णत्वदर्पण-तृतीय श्रीनिवास पण्डित द्वारा रचित ग्रन्थों में नामक नरेश ने यहाँ बृहदीश्वर नाम से भगवान् शंकर एक कृति । इसमें विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन तथा अन्य के भव्य मन्दिर का निर्माण कराया था। इसकी स्थापत्य मतों का खण्डन है। रचनाकाल अठारहवीं शती वि० का कला बहुत प्रशंसनीय है। मन्दिर का शिखर २०० फुट उत्तरार्ध है। ऊँचा है और नन्दी की मूर्ति १६ फुट लम्बी, १३ फुट ऊँची तथा ७ फुट मोटी एक ही पत्थर की बनी है । इसका शिल्प कौशल देखने के लिए विदेश के यात्री भी तक्षक वैशालेय-तक्षक वैशालेय (विशाला का वंशज) आते हैं। तंजौर का दूसरा तीर्थ अमृतवापिका सरसी अप्रसिद्ध ऋत्विज है, जिसे अथर्ववेद (७.१०,२९) में है । पुराणों के अनुसार यह पराशरक्षेत्र है। पूर्वकाल में विराज का पुत्र कहा गया है। पञ्चविंश ब्राह्मण वणित यह तंजन नामक राक्षस का निवास स्थान था जिसको सर्पयज्ञ में इसे ब्राह्मणाच्छंसी पुरोहित कहा गया है। ऋषियों ने तीर्थ में परिवर्तित कर दिया। तक्षशिला-बृहत्तर भारत का एक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण तत्त्व-किसी वस्तु का निश्चित अस्तित्व या आन्तरिक विद्या केन्द्र तथा गन्धार प्रान्त की राजधानी । रामायण भाव । सूक्ष्म अन्तरात्मा से लेकर मानव और भौतिक में इसे भरत द्वारा राजकुमार तक्ष के नाम पर स्थापित सम्बन्धों को सुव्यवस्थित करने वाले नियमों तक के लिए बताया गया है, जो यहाँ का शासक नियुक्त किया गया इसका प्रयोग होता है। सांख्य के अनुसार प्रकृति के था । जनमेजय का सर्पयज्ञ इसी स्थान पर हुआ था (महा- विकास तथा पुरुष को लेकर छब्बीस तत्त्व है। त्रिक भारत १.३.२०)। महाभारत अथवा रामायण में इसके सिद्धान्त के अनुसार छत्तीस तत्त्व हैं, जिनका स्वरूप उस विद्याकेन्द्र होने की चर्चा नहीं है, किन्तु ई० पू० सप्तम समय प्रकट होता है जब शिव की चिच्छक्ति के विलास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy