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________________ ज्ञानकाण्ड-ज्ञानदेव २८५ निष्क्रिय है। इससे यही निष्कर्ष निकला कि सांख्य और और वस्तु से भी परे है। इसीलिए वह नित्य, विभु और पातञ्जल दर्शन द्वारा आत्मा की असंगता तो सिद्ध होती है पूर्ण है । राजयोगी इसी निर्गुण परब्रह्म भाव का अनुभव पर एकात्मवाद नहीं। करता है। साधक इस दशा में निर्विकल्प समाधि धारण सांख्य में बहुपुरुषवाद की कल्पना की गयी है। उससे करता है। परमात्मा की अद्वितीय उपलब्धि नहीं होती अपितु वह परब्रह्म परमात्मा स्वयं प्रकाशमान हैं, वे सर्वातीत और प्रत्येक पिण्ड में अलग-अलग कूटस्थ चैतन्य के रूप में निरपेक्ष हैं, उन्हीं के तेजोमय प्रकाश से सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र ज्ञात होता है । इस तरह सांख्य की ज्ञानभूमि पुरुषमूलक और बिजली आदि प्रकाशमान हैं। इन सबका प्रतिपादन है। प्रकृति के अस्तित्व की स्वीकृति के कारण वहाँ प्रकृति वेदान्तभूमि में है। इसी की उपलब्धि से साधक को को अनादि और अनन्त कहा गया है। निर्वाण की प्राप्ति होती है। यहीं जीवनयज्ञ का अवसान इससे आगे बढ़ने पर मीमांसात्रय का आरम्भ होता है। और ज्ञानयज्ञ की पूर्णाहुति है। कर्ममीमांसा या पूर्वमीमांसा में जगत् को ही ब्रह्म मानकर ज्ञानकाण्ड-वेदों में समुच्चय रूप से प्रधानतः तीन विषयों अद्वितीयता की सिद्धि की गयी है। इससे जीव द्वैतमय का प्रतिपादन हआ है-कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड एवं उपाजगत् से अद्वैतमय ब्रह्म की ओर जाता है। इसमें साधक सनाकाण्ड । ज्ञानकाण्ड वह है जिससे इस लोक, परलोक की गति ब्रह्म के तटस्थ स्वरूप की ओर होती है। इसके तथा परमात्मा के सम्बन्ध में वास्तविक रहस्य की बातें अनन्तर दैवीमीमांसा आती है। यह उपासनाभूमि है जो जानी जाती हैं। इससे मनुष्य के स्वार्थ, परार्थ तथा ब्रह्म की अद्वितीयता को प्रकृति के साथ मिश्रित कर परमार्थ की सिद्धि हो सकती है। उसको शुद्ध स्वरूप की ओर से दिखाती है । वहाँ ब्रह्म को वेदान्त, ज्ञानकाण्ड एवं उपनिषद् प्रायः समानार्थक ही जगत् की संज्ञा दी जाती है । इसमें आत्मा का यथार्थ ___ शब्द है। वेद के ज्ञानकाण्ड के अधिकारी बहुत थोड़े से ज्ञान प्रकृति के ज्ञान के साथ होता है । मुण्डकोपनिषद् के व्यक्ति होते हैं। अधिकांश कर्मकाण्ड के ही अधिकारी हैं। अनुसार ब्रह्मसत्ता अधः, ऊर्ध्व सर्वत्र व्याप्त है । श्वेताश्वत- ज्ञानचन्द्र-वैशेषिक दर्शन के एक आचार्य । लगभग ६६० रोपनिषद् में भी अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्र और वि० के लगभग ज्ञानचन्द्र ने 'दशपदार्थ' नामक प्रन्थ लिखा नक्षत्रादि को ब्रह्म का रूप माना गया है। वहाँ परमात्मा जो अपने मूल रूप में आजकल प्राप्त तो नहीं है, किन्तु को ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण चराचर के रूप में वर्णित किया इसका चीनी भाषा में अनुवाद पाया जाता है । प्रसिद्धि है गया है और उसे स्त्री-पुरुष, बालक, युवक और वृद्ध सभी कि यह चीनी अनुवाद ६४८ ई० में बौद्ध यात्री ह्वेनसाँग रूपों में देखा गया है। इस तरह दैवीमीमांसा दर्शन की के द्वारा किया गया था। ज्ञानभूमि में परमात्मा को व्यापक, निलिप्त, नित्य और ज्ञानतिलक-नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की खोजों से अद्वितीय कार्यब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है। प्राप्त और गुरु गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रन्थों में से यह ज्ञान की सप्तम भूमि ब्रह्ममीमांसा वेदान्त की है। एक है। इसमें निरूपित ब्रह्म निर्गण और प्रकृति से परे है। उसमें ज्ञानदास-सत्रहवीं शती वि० के मध्य ४० वर्षों में चैतन्यमाया अथवा प्रकृति का आभास भी नहीं है। माया उसके संप्रदाय के भक्ति आन्दोलन ने बँगला भाषा के अनेक नीचे ब्रह्म के ईश्वर भाव से सम्बद्ध है। वेद के अनुसार गीतकारों और काव्य रचयिताओं को जन्म दिया । ज्ञानपरमात्मा के चार पादों में से एक पाद मायाच्छन्न और दास भी उनमें से ऐसे ही साहित्यिक भक्त थे ।। सृष्टिविलसित है और शेष तीन माया से परे अमृत हैं। ज्ञानदेव-महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त, जो नाथ सम्प्रदाय के ये तीनों ब्रह्मभाव हैं। यहाँ सांख्य दर्शन का मायागत एक आचार्य माने जाते हैं । इनका एक नाम ज्ञानेश्वर भी पुरुषवाद नहीं है । यहाँ माया का लय है इसीलिए वेदान्त है । मराठी भाषा में भगवद्गीता पर इन्होंने बड़ी उत्तम में माया को अनादि कहकर भी सान्त कहा गया है । माया व्याख्या लिखी है जो 'ज्ञानेश्वरी' के नाम से प्रसिद्ध है। का एकान्त अभाव होने से शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप पर- ये शुद्धाद्वैतवाद का प्रचार वल्लभाचार्य के लगभग तीन ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। निर्गुण ब्रह्म देश, काल सौ वर्षों पहले कर चुके थे। इन्होंने अपने 'अमृतानुभव' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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