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________________ प्रन्थसाहब-पर्यसन २५५ भोजन का उस दिन आहार करना चाहिए। विशेष रूप जहाँ तिथि तथा नक्षत्रों के सन्दर्भानुसार भिन्नसे वैशाख, भाद्रपद तथा माघ की तृतीया पवित्र है। के संयोगों का निर्देश करते हैं, वहाँ ग्रहों तथा अन्य देवों (४) ज्येष्ठ की चतुर्थी को उमा का पूजन करना चाहिए, के सम्मानसूचक कुछ विशेष यागों का भी संकेत करते क्योंकि उसी दिन उनका जन्म हुआ था। हैं । इन यज्ञ-यागों द्वारा थोड़े से व्यय में ही अनन्त पुण्य प्रन्थ साहब-गुरु नानक, अन्य सिक्ख-गुरुओं तथा सन्त। की उपलब्धि होती है। इस विषय में एक उदाहरण कवियों के वचनों का इसमें संग्रह है। पांचवे गुरु अर्जुन पर्याप्त होगा । यदि किसी रविवार को षष्ठी तिथि हो देव स्वयं कवि थे एवं व्यावहारिक भी। उन्होंने अमृतसर और संयोग से उसी दिन पुष्य नक्षत्र भी हो, तो स्कन्दका स्वर्णमन्दिर बनवाया और 'ग्रन्थ साहब' को पूर्ण किया। याग का आयोजन किया जाना चाहिए। इस व्रत के ग्रह-यज्ञकर्म का सोमपानपात्र (प्याला)। ग्रह का उल्लेख आयोजन से मनुष्य की समस्त मनोवांछाएँ पूर्ण होती हैं । शतपथ ब्राह्मण (४.६.५.१) में परवर्ती ग्रह के अर्थ में न लगभग एक दर्जन 'याग' हेमाद्रिकृतव्रतखण्ड में बतलाये गये होकर ऐन्द्रजाजिक शक्ति के अर्थ में हुआ है। परवर्ती हैं। तीन प्रकार के ग्रहयज्ञों के लिए देखिए : स्मृतिकौस्तुभ, साहित्य में ही प्रथम बार इसका प्रयोग खेचर पिण्डों के ४५५-४७९ जो हेमाद्रि २.५९०-५९२ से नित्तान्त भिन्न है। अर्थ में हुआ है, जैसा कि मैत्रायणी उपनिषद् (६.१६) प्रहयामलतन्त्र-'वामकेश्वरतन्त्र' में चौसठ तन्त्रों की सूची से ज्ञात है। वैदिक भारतीयों को ग्रहों का ज्ञान था। दी हुई है, इसमें आठ यामलतन्त्र हैं । ये यामल (जोड़े) ओल्डेनवर्ग ग्रहों को आदित्यों की संज्ञा देते हैं जो सात विशेष देवता एवं उसकी शक्ति के युग्मीय एकत्व के प्रतीक है-सूर्य, चन्द्र एवं पाँच अन्य ग्रह । दूसरे पाश्चात्य का वर्णन करते हैं । ग्रहयामलतन्त्र भी उनमें से एक है। विद्वानों ने इसका विरोध किया है। हिलब्राण्ट ने पाँच ग्रामगेयगान-आचिक (सामवेदसम्बन्धी ग्रन्थ) में दो अध्वर्युओं (ऋग्वेद ३.७.७) को ग्रह कहा है। यह भी प्रकार के गान हैं , प्रथम ग्रामगेयगान, द्वितीय अरण्यगान। केवल अनुमान ही है। 'पञ्च उक्षाणः' को ऋग्वेद के एक अरण्यगान अपने रहस्यात्मक स्वरूप के कारण वन में गाये दूसरे मन्त्र में उसी अनिश्चिततापूर्वक ग्रह कहा गया है। जाते हैं । ग्रामगेयमान नित्य स्वाध्याय, यज्ञ आदि के समय निरुक्त के भाष्य में दुर्गाचार्य ने 'भूमिज' को मङ्गल ग्रह ग्राम में गाये जाते हैं। कहा है। परवर्ती तैत्तिरीय आरण्यक (१.७) में वणि सप्तसूर्यों को ग्रहों के अर्थ में लिया जा सकता है। लुड्विग ने सूर्य व चन्द्र के साथ पाँच ग्रहों एवं सत्ताईस नक्षत्रों को घट-धार्मिक साधनाओं में 'घट' का कई प्रकार से उपयोग ऋग्वेदोक्त चौंतीस ज्योतियों एवं यज्ञरूपी घोड़े की होता है । शुभ कृत्यों में वरुण (जल तथा नीति के देवता) पसलियों का सूचक बताया है। के अधिष्ठान के रूप में घट की स्थापना होती है । घट ग्रह-नक्षत्रों और हिन्दुओं के धार्मिक कृत्यों का घनिष्ठ घटिकायन्त्र अथवा काल का भी प्रतीक है जो सभी सम्बन्ध है। प्रत्येक धार्मिक कार्य के लिए शुभ मुहूर्त की कृत्यों का साक्षी माना जाता है । नवरात्र के दुर्गापूजनाआवश्यकता होती है। इसीलिए प्राचीन काल में वेद के रम्भ में घट की स्थापना कर उसमें देवी को विराजमान षडङ्गों में ज्योतिष' का विकास हआ था। यज्ञों का किया जाता है। समय ज्योतिषपिण्डों की गतिविधि के अनुसार निश्चित शाक्त लोग रहस्यमय रेखाचित्रों का 'यन्त्र' एवं होता था। सूर्य-उपासना में सौरमण्डल के नव ग्रहों का 'मण्डल' के रूप में प्रचरता से प्रयोग करते हैं । इन यन्त्रों विशिष्ट स्थान है। नव ग्रहों में शुभ और दुष्ट दोनों एवं मण्डलों को वे धातु की स्थालियों, पात्रों एवं पवित्र प्रकार के ग्रह होते हैं । प्रत्येक माङ्गलिक कार्य के पूर्व नव- घटों पर अंकित करते हैं । मद्यपूर्ण घट की पूजा और ग्रह-पूजन होता है। दुष्ट ग्रहों की शान्ति की विधि भी उसका प्रसाद लिया जाता है। कर्मकाण्डीय पद्धतियों में विस्तार से वणित है। घटपर्यसन (घटस्फोट)-किसी पतित अथवा जातिच्युत ग्रयाग-निबन्धों और पद्धतियों के शान्ति वाले विभाग में व्यक्ति का जो श्राद्ध (अन्त्येष्टि) उसके जीवनकाल में ही नवग्रह याग प्रकरण मिलता है । हेमाद्रि ( २.८०-५९२) कुटुम्बियों द्वारा किया जाता है, उसे 'घटपर्यसन' कहते हैं । घ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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