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________________ २४८ गोमुख-गोरखनाथ गोमांस भक्षयेन्नित्यं पिवेदमरवारुणीम् । किया। इनके समाधिस्थ होने के बाद गोरक्ष की कहाकुलीनं तमहं मन्ये इतरे कुलघातकाः ॥ नियाँ तथा नाथों की कहानियाँ इन्हीं के नाम से चल गोशब्देनोच्यते जिह्वा तत्प्रवेशो हि तालुनि । पड़ी। कहते हैं कि इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। गोमांसभक्षणं तत्तु महापातकनाशनम् ।। हठयोगप्रदीपिका ( २.५ ) में इनकी गणना सिद्धयोगियों [जो नित्य गोमांस भक्षण और अमर वाणी का पान में की गयी है : करता है उसको कुलीन मानता हूँ; ऐसा न करने वाले श्रीआदिनाथ-मत्स्येन्द्र-शावरानन्द-भैरवाः । कुलघातक होते हैं। यहाँ गो-शब्द का अर्थ जिह्वा है। चौरङ्गी-मीन-गोरक्ष-विरूपाक्ष-बिलेशयाः ।। तालु में उसके प्रवेश को गोमांसभक्षण कहते हैं। यह इनकी समाधि गोरखपुर ( उ. प्र.) में है जो गोरखमहापातकों का नाश करने वाला है।] पंथियों का प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। दे० 'गोरखनाथ' और गोमुख-(१) हिमालय पर्वत के जिस सँकरे स्थान से गङ्गा 'गोरखनाथी'। का उद्गम होता है उसे 'गोमुख' कहते हैं। यह पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है। गङ्गोत्तरी से लगभग गोरखनाथजी का यह संस्कृत नाम है । 'गोरक्ष' शिव दस मील पर देवगाड़ नामक नदी गङ्गा में मिलती है ।। वहाँ से साढ़े चार मील पर चीड़ोवास ( चीड़ के वृक्षों का गोरखनाथ नाथ सम्प्रदाय का उदय यौगिक क्रियाओं के वन ) है। इस वन से चार मील पर गोमुख है। यहीं उद्धार के लिए हुआ, जिनका रूप तान्त्रिकों और सिद्धों हिमधारा (ग्लेशियर ) के नीचे से गङ्गाजी प्रकट होती ने विकृत कर दिया था। नाथ सम्प्रदाय के नवें नाथ हैं । गोमुख में इतना शीत है कि जल में हाथ डालते ही प्रसिद्ध हैं। इस सम्प्रदाय की परम्परा में प्रथम नाम वह सूना हो जाता है । गोमुख से लौटने में शीघ्रता करनी आदिनाथ (विक्रम की ८वीं शताब्दी ) का है, जिन्हें पड़ती है। धूप निकलते ही हिमशिखरों से भारी सम्प्रदाय वाले भगवान् शङ्कर का अवतार मानते हैं । हिमचट्टानें टूट-टूटकर गिरने लगती है। अतः धूप चढ़ने आदिनाथ के शिष्य मत्स्येन्द्रनाथ एवं मत्स्येन्द्र के शिष्य के पहले लोग चीड़ोवास के पड़ाव पर पहुँच जाते हैं। गोरखनाथजी हुए। नौ नाथों में गोरखनाथ का नाम (२) यह एक प्रकार का आसन है। हठयोगप्रदीपिका सर्वप्रमुख एवं सबसे अधिक प्रसिद्ध है। उत्तर प्रदेश में (१.२० ) में इसका वर्णन इस प्रकार पाया जाता है: इनका मुख्य स्थान गोरखपुर में है। गोरक्षनाथजी का मन्दिर सव्ये दक्षिणगुल्फं तु पृष्ठपावें नियोजयेत् । प्रसिद्ध है। यहाँ नाथपंथी कनफटे योगी साधु रहते हैं। दक्षिणेऽपि तथा सव्यं गोमुखं गोमुखाकृति ॥ इस पन्थ वालों का योगसाधन पातञ्जलि विधि का विक[बायें पीठ के पार्श्व में दाहिनी एडी और दायें पृष्ठ- सित रूप है । नेपाल के निवासी गोरखनाथ को पशुपतिपार्श्व में बायीं एड़ी लगानी चाहिए। इस प्रकार गोमुख नाथजी का अवतार मानते हैं। नेपाल के भोगमती, आकृति वाला गोमुख आसन बनता है।] भातगाँव, मृगस्थली, चौधरी, स्वारीकोट, पिडठान आदि (३) जपमाला के गोपन के लिए निर्मित वस्त्र की स्थानों में नाथ पन्थ के योगाश्रम हैं। राज्य के सिक्कों झोली को गोमुखी कहते हैं । दे० मुण्डमालातन्त्र । पर 'श्रीगोरखनाथ' अंकित रहता है। उनकी शिष्यता गोयुग्मवत-रोहिणी अथवा मृगशिरा नक्षत्र को इस व्रत के कारण ही नेपालियों में गोरखा जाति बन गयी है और का अनुष्ठान होता है। इसमें एक साँड तथा एक गौ का एक प्रान्त का नाम गोरखा कहलाता है। गोरखपुर में शृङ्गार कर उनका दान करना चाहिए। दान से पूर्व उन्होंने तपस्या की थी जहाँ वे समाधिस्थ हुए। उमा तथा शङ्कर का पूजन करना चाहिए। इस व्रत का गोरखनाथकृत हठयोग, गोरक्षशतक, ज्ञानामृत, आचरण करने से कभी पत्नी अथवा पुत्र की मृत्यु नहीं गोरक्षकल्प, गोरक्षसहस्रनाम आदि ग्रन्थ हैं । काशी नागरी देखनी पड़ती, ऐसा इस व्रत का माहात्म्य कहा गया है। प्रचारिणी सभा की खोज में चतुरशीन्यासन, योगचिन्तागोरक्ष-प्रसिद्ध योगी गोरक्षनाथजी १२०० ई० के लग- मणि, योगमहिमा, योगमार्तण्ड, योगसिद्धान्तपद्धति, भग हुए एवं इन्होंने अपने एक स्वतन्त्र मत का प्रचार विवेकमार्तण्ड और सिद्ध-सिद्धान्तपद्धति आदि संस्कृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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