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________________ खालसा २१९ की । ब्रह्मा ने अग्नि को खाण्डव वन जलाकर उसके ऐसे हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि आकाश में विचरण जन्तुओं का भक्षण करने की अनुमति दी, जो देवों को करने वाली यक्ष, गन्धर्व आदि कई देवयोनियाँ हैं, उन्हीं कष्ट पहुँचाते थे । अग्नि ने ब्राह्मण का वेष धारण कर में विद्याधर भी हैं । पक्षी और नक्षत्र भी खेचर कहअर्जन एवं कृष्ण के पास जाकर खाण्डव वन को जलाने में सहायता मांगी, क्योकि खाण्डव वन इन्द्र द्वारा सुरक्षित खेचरी-आकाशचारिणी देवी । आकाश में चलने की एक था। कृष्ण और अर्जुन ने होकर वन के दो सिरों पर सिद्धि, जो योगियों को प्राप्त होती है। हठयोग की एक खड़े पशुओं को वन से भागने से रोकते हुए इन्द्र मुद्रा (शारीरिक स्थिति), जिसमें जीभ को उलटकर तालुको अग्नि के कार्य में बाधा देने से रोकने का कार्य मूल में लगाते हैं । इसकी पहेली प्रसिद्ध है : सँभाला । इस प्रकार सारा वन जल गया। अग्नि पन्द्रह दिन तक प्रज्वलित रहा । कहा गया है कि अग्नि ने इसे गोमांस खादयेद् यस्तु पिबेदमरवारुणीम् । एक बार और जलाया था। यह पौराणिक कथा प्रतीत कुलीनं तमहं मन्ये चेतरे कुलघातकाः ।। होती है । इसके पीछे यह अर्थ स्पष्ट है कि पाण्डवों ने खेमवास-महात्मा दादूदयाल ( दादूपन्थ चलाने वाले ) के इस वन को जलाकर 'खाण्डवप्रस्थ' ( इन्द्रप्रस्थ) नाम एक शिष्य कवि खेमदास थे। इनके रचे हए भजन या पद की अपनी राजधानी बसायी । जनता में खूब प्रचलित हैं। खशा-दक्ष की कन्या और कश्यप की एक पत्नी । गरुड- ख्याति-दार्शनिक सिद्धान्तवाद, यथा अनिर्वचनीय ख्याति, पुराण ( अध्याय ६ ) में इसका उल्लेख है : असत्ख्याति, सत्ख्याति आदि । सांख्यदर्शन के अनुसार धर्मपत्न्यः समाख्याताः कश्यपस्य वदाम्यहम् । अन्तिम ज्ञानरूपा वृत्ति । इस मत में तीन प्रकार के तत्त्व अदितिदितिदनुः काला अनायुः सिंहिका मुनिः ।। है-(१) व्यक्त (२) अव्यक्त और ज्ञ। मूल प्रकृति कद्रुः प्राधा इरा क्रोधा विनता सुरभिः खशा॥ को अव्यक्त कहा जाता है। मूल प्रकृति के परिणाम को खालसा-सिक्ख धर्म की एक शाखा 'खालसा' ( शद्ध) व्यक्त कहा जाता है । इसके तेईस भेद हैं जो कार्य-कारण कहलाती है। गुरु गोविन्दसिंह ने देखा कि उन्हें मगलों परम्परा से परिणत होते हैं । ज्ञ चेतन है । सांख्यसिद्धान्त से अवश्य लड़ना पड़ेगा । इस कारण उन्होंने एक ऐसा में ये ही पचीस तत्त्व अथवा प्रमेय हैं। इन्हीं तत्त्वों के सैनिक दल तैयार किया, जिसको धार्मिक आधार प्राप्त सम्यक् ज्ञान अर्थात् प्रकृति-पुरुष के पार्थक्य के बोध से दुःख हो। उन्होंने अपने सैनिकों को 'खड्ग दी पहुल' (खड्ग की निवृत्ति होती है । सांख्यकारिका (२) में कथन है : संस्कार ) तथा अन्य अनेक प्रतिज्ञाओं के पालन करने के 'व्यक्ताव्यक्त-ज्ञ-विज्ञानात् ।' लिए तैयार किया। इन प्रतिज्ञाओं में पाँच वस्तुओं [ व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ के विज्ञान से दुःख निवृत्ति ।] ( केश, कच्छा, कृपाण, कड़ा तथा कंधा ) का धारण, इस ज्ञान को ही ख्याति कहते हैं। परन्तु यह भी एक नियमित ईश्वराराधना, एक साथ भोजन करना तथा प्रकार की चित्तवृत्ति (अक्लिष्टा) का परिणाम है। रज मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, सती होने, शिशुवध, तम्बाकू एवं और तम से रहित सत्त्वगुणप्रधान प्रशान्तवाहिनी प्रज्ञा मादक द्रव्यों के सेवन से दूर रहने की प्रतिज्ञाएँ थीं। हर ख्याति है। इसमें वृत्तिसंस्कार का चक्र बना रहता है। एक की उपाधि 'सिंह' रखी गयी । इनमें जातिभेद न रहा चित्तनिरोध की अवस्था में यह संस्काररूप से चलता रहता और इस प्रकार ये खालसा ( शुद्ध ) कहलाये । है। अभ्यास के द्वारा संस्कारों का भी क्षय होकर विदेह खिलपर्व-उन्तीस उपपुराणों के अतिरिक्त महाभारत का कैवल्य प्राप्त होता है, जिसमें ख्याति भी निवृत्त हो जाती खिलपर्व, जिसे हरिवंश भी कहते हैं, उपपुराणों में गिना है । दे० शिशुपालवध (४.५५) । जाता है । इसमें विष्णु भगवान् के चरित्र का कीर्तन है और विशेष रूप से कृष्णावतार की कथा है। खेचर-(आकाश में चलने वाले) विद्याधर । इन्हें कामरूपी ग-व्यञ्जनों के कवर्ग का तृतीय वर्ण । कामधेनुतन्त्र भी कहते हैं, अर्थात् ये जैसा रूप चाहें धारण कर सकते में इसके स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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