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________________ २१४ क्रमसंदर्भ-छत्र समीप पहुँचता है, उसे नया स्वरूप प्राप्त होता है तथा धर्मशास्त्र में व्यवहारपाद ( न्यायविधि) का एक पादवास्तव में वह मुक्त हो जाता है। इसे 'क्रममुक्ति' का विशेष क्रिया कहलाता है । वह दो प्रकार की होती हैसिद्धान्त कहते हैं। मानुषी और देवी । प्रथम साक्ष्य, लेख्य और अनमान भेद क्रमसंदर्भ-चैतन्य महाप्रभु के संप्रदाय में जीव गोस्वामी के से तीन प्रकार की होती है। दूसरी घट. अग्नि, उदक. रचे ग्रंथों का प्रमुख स्थान है। 'क्रमसंदर्भ' भागवत पुराण विष, कोष, तण्डुल, तप्तमाषक, फाल, धर्म भेदों से नौ का उन्हीं के द्वारा संस्कृत में किया गया भाष्य है। प्रकार की होती है । दे० 'व्यवहरतत्त्व' में बृहस्पति । रचना १५८०-१६१० ई० के मध्य की है । इस प्रकार की क्रियापाद-शैव आगमों के समान ही वैष्णव संहिताओं के सैद्धांतिक रचनाओं के जीव गोस्वामीकृत छ: निबन्ध हैं, चार भाग हैं-१. ज्ञानपाद, २. योगपाद, ३. क्रियाजिनकी भाषा अत्यन्त प्रौढ और प्रांजल है । ये 'षट्संदर्भ' पाद और ४. चर्यापाद । क्रियापाद के अन्तर्गत मन्दिरों वैष्णवों के आकर ग्रंथ (निधि) माने जाते हैं । तथा मूर्तियों के निर्माण का विधान और वर्णन पाया क्रवण-ऋग्वेद में एक स्थान (५. ४४. ९) पर उल्लिखित जाता है। यह शब्द लुडविग के मत से एक होता (पुरोहित) का नाम धर्मशास्त्र में व्यवहार (न्याय ) का तीसरा पाद है। राथ इसे विशेषण मानकर 'कायर' अर्थ करते हैं। क्रिया कहलाता हैसायण इसका अर्थ 'पूजा करता हुआ' और ओल्डेनवर्ग पूर्वपक्षः स्मृतः पादो द्वितीयश्चोत्तरः स्मृतः । इसका अर्थ अनिश्चित बताते हैं, किन्तु सम्भवतः वे इसका क्रियापादस्तथा चान्यश्चतुर्थो निर्णयः स्मृतः ॥ अर्थ 'बलिपशु का वधिक' लगाते हैं। (बृहस्पति, व्यवहारतत्त्व) क्रव्याव-क्रव्य = कच्चा मांस + अद = भक्षक अर्थात् दानव । [व्यवहार का प्रथम पाद पूर्वपक्ष, द्वितीय पाद उत्तर, शव दहन करने वाले अग्नि का भी यह नाम है। महाभारत ततीय क्रियापाद और चतुर्थ निर्णयपाद कहलाता है। . (१.६.७) में कथा है कि भूगु ने पुलोमा के अपहरण पर क्रियायोग-देवाराधन तथा उनके पूजन के लिए मन्दिर अग्नि को शाप दिया कि वह सर्वभक्षी हो जाय । सर्वभक्षी निर्माण आदि पुण्यकर्मो को क्रियायोग कहते हैं। अग्निहोने पर मांसादि सभी अमेध्य वस्तुओं को अग्नि को ग्रहण पुराण के वैष्णव क्रियायोग के यमानुशासन अध्याय में करना पड़ा। परन्तु प्रश्न यह उपस्थित हो गया कि अशुद्ध इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है। अग्निमुख से देव और पितर किस प्रकार आहुति ग्रहण पातञ्जलि योगसूत्र के अनुसार तप, स्वाध्याय और करेंगे । देवताओं के अनुरोध से ब्रह्मा ने अपने प्रभाव को ईश्वरप्रणिधान क्रियायोग के अन्तर्गत सम्मिलित हैं अग्नि पर प्रकट करते हुए अपने आहुत भाग को स्वीकार (तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानिक्रियायोगाः)। किया। इसके पश्चात् देव-पितरो न भा अपना-अपना भाग क्रियासार-आगमिक शैवों में नीलकंठ रचित क्रियासार का अग्निमुख से लेना प्रारम्भ किया । व्यवहार अधिक होता है। यह श्रीकंठशिवाचार्य-रचित शान्तिकर्म आदि में क्रव्याद अग्नि का अपसारण (दूरी शैव ब्रह्मसूत्रभाष्य का संक्षिप्त सार है । यह संस्कृत ग्रन्थ करण) ऋग्वेद (१०.१६.९) के मन्त्र से किया जाता है। लिङ्गायती द्वारा प्रयुक्त होता है, जो सत्रहवीं शती की क्रिया-सृष्टि-विकास के प्रथम चरण को 'क्रिया' कहते हैं। रचना है। प्रारंभिक सृष्टि की पहली अवस्था में शक्ति का जागरण दो ऋञ्च आङ्गिरस-सामवेद के क्रौञ्च नामक गान के ध्वनिकार चरणों में होता है-१. 'क्रिया' और २. 'भूति' तथा ऋषि पञ्चविंश ब्राह्मण (१३. ९, ११, ११, २०) में उनके छः गुणों का विकास होता है। उक्त नाम यह सिद्ध करने के लिए दिया हुआ है कि साम शिक्षा, पूजा, चिकित्सा और सामान्य धार्मिक विधियों के गानों का नाम स्वररचयिता के नामानुसार रखा गया है के लिए भी ‘क्रिया' शब्द का प्रयोग होता है : इस नियम के अनेक अपवाद भी मिलते हैं। आरम्भो निष्कृतिः शिक्षा पूजानं सम्प्रधारणम् । क्षत्र-राष्ट्र, शक्ति, सार्वभौमता । ऋग्वेद में इसका अर्थ उपायः कर्मचेष्टा च चिकित्सा च नवक्रियाः ।। शासक है ( १. १५७. २; ८. ३५. १७) तथा परवर्ती (भावप्रकाश) ग्रन्थों में भी यही अर्थ माना गया है। किन्तु ऋग्वेद में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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