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________________ कृत्ति-कृत्तिकास्नान १९९ पर एक बिन्दु हाता है, अर्थात् क्रम से प्रत्येक में एक-एक मैं आपके ऊपर स्थित होने के कारण धन्य हूँ। त्रिशूल बिन्दु कम होता जाता है । ब्राह्मण ग्रन्थों, रामायण-महाभारत के अग्र भाग पर स्थित होने के कारण मैं कृतकृत्य और एवं पुराणों में उपर्युक्त पासों के पक्षबिन्दुओं के अनुसार अनुगृहीत हूँ। काल से तो सभी मरते हैं, परन्तु इस प्रकार इनके नाम रखने का अर्थ यह है कि कृत सबसे चौगुना लम्बा की मृत्यु कल्याणकारी है। कृपानिधि शंकर ने हंसते हुए एवं सर्वगुणसम्पन्न युग है तथा क्रम से युगों में गुण एवं कहा-हे गजासुर ! मैं तुम्हारे महान् पौरुष से प्रसन्न हूँ। आयु का ह्रास होता जाता है। कृत की आयु ४४०० हे असुर, अपने अनुकूल वर माँगो, तुमको अवश्य दूंगा। दिव्य वर्ष है, वेता की ३३००, द्वापर की २२०० तथा कलि उस दैत्य ने शिव से पुनः निवेदन किया, हे दिग्वास! यदि की ११०० दिव्य वर्ष है। एक दिव्य वर्ष १००० मानव- आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे सदा धारण करें। यह मेरी वर्ष के बराबर होता है। कृत्ति (चर्म) आपकी त्रिशूलाग्नि से पवित्र हो चुकी है । ___ कृतयुग हमारे सामने मनुष्यजाति की सबसे सुखी यह अच्छे आकार वाली, स्पर्श करने में सुखकर और युद्ध अवस्था को प्रस्तुत करता है । मनुष्य इस युग में ४००० में पणीकृत है । हे दिगम्बर ! यदि यह मेरो कृत्ति पुण्यवती वर्ष जीता था । न तो युद्ध होते थे न झगड़े। वर्णाश्रमधर्म नहीं होती तो रणाङ्गण में इसका आपके अंग के साथ तथा वेद की शिक्षाओं का पूर्णरूपेण पालन होता था । सम्पर्क कैसे होता ? हे शंकर ! यदि आप प्रसन्न हैं तो अच्छे गुणों का दृढ शासन था। कलि ठीक इसके विपरीत एक दूसरा वर दीजिए । आज के दिन से आपका नाम गुणों का बोधक युग है । दे० 'कलियुग ।' कृत्तिवासा हो। उसके वचन को सुनकर शंकर ने कहा, कृत्ति-मरुत् देवता के एक अस्त्र का नाम । ऋग्वेद में उद्धृत ऐसा ही होगा। भक्ति से निर्मल चित्त वाले दैत्य से उन्होंने (१.१६८.३) मरुतों को 'कृत्ति' धारण करने वाला कहा गया है। जिमर ने इस शब्द का अर्थ 'खड्ग' लगाया है, हे पुण्यनिधि दैत्य ! दूसरा वर अत्यन्त दुर्लभ है। जिसे युद्ध में धारण किया जाता था। किन्तु इसका कोई अविमुक्त (काशी) में, जो मुक्ति का साधन है, तुम्हारा प्रमाण नहीं है कि उस समय कृत्ति एक मानवीय अस्त्र था। यह पुण्यशरीर मेरी मूर्ति होकर अवतरित होगा, जो सबके कृत्तिवासा-कृत्ति अथवा गजचर्म को वस्त्र के रूप में धारण लिए मक्ति देनेवाला होगा। इसका नाम 'कृत्तिवासेश्वर करने वाले । यह शिव का पर्याय है । स्कन्दपुराण के होगा । यह महापातकों का नाश करेगा। सभी मतियों में काशीखण्ड (अध्याय ६४) में गजासुरवध तथा शिव के यह श्रेष्ठ और शिरोभूत होगा।" कृत्तिवासत्व की कथा दी हुई है, यथा कृत्तिकावत-यह व्रत कार्तिकी पूर्णिमा के दिन प्रारम्भ "महिषासुर का पुत्र गजासुर सर्वत्र अपने बल से होता है। इसमें किसी पवित्र स्थान पर स्नान करना उन्मत्त होकर सभी देवताओं का पोडन कर रहा था। चाहिए, जैसे प्रयाग, कुरुक्षेत्र, पुष्कर, नैमिषारण्य, मलयह दुस्सह दानव जिस-जिस दिशा में जाता था वहाँ तुरन्त स्थान और गोकर्ण, अथवा किसी भी नगर अथवा ग्राम में सभी दिशाओं में भय छा जाता था। ब्रह्मा से वर पाकर स्नान किया जा सकता है। सुवर्ण, रजत, रत्न, नवनीत वह तीनों लोकों को तृणवत् समझता था। काम से अभि- तथा आटे की छः कृत्तिका नक्षत्रों की मूर्तियों का पूजन भूत स्त्री-पुरुषों द्वारा यह अवध्य था। इस स्थिति में उस करना चाहिए । मूर्तियाँ चन्दन, आलक्तक तथा केसर से दैत्यपुङ्गव को आता हुआ देखकर त्रिशूलधारी शिव ने चचित तथा सज्जित होनी चाहिए। पूजा में जाती पुष्पों मानवों से अवध्य जानकर अपने त्रिशूल से उसका वध का प्रयोग करना चाहिए। किया। त्रिशूल से आहत होकर और अपने को छत्र के कृत्तिकास्नान-इस व्रत में भरणी नक्षत्र के दिन उपवास समान टॅगा हुआ जानकर वह शिव की शरण में गया करना चाहिए। कृत्तिका नक्षत्र वाले दिन पुरोहित द्वारा और बोला-हे त्रिशूलपाणि! है देवताओं के स्वामी ! यजमान तथा उसकी पत्नी को सोने के कलश अथवा मैं आपको कामदेव को भस्म करने वाला जानता हूँ । हे। पवित्र जल तथा वनस्पतियों से परिपूर्ण मिट्टी के कलश पुरान्तक! आपके हाथों मेरा बध श्रेयस्कर है। कुछ मैं द्वारा स्नान कराना चाहिए। इसमें अग्नि, स्कन्द, चन्द्र, कहना चाहता हूँ। मेरी कामना पूरी करें । हे मृत्युञ्जय! कृपाण तथा वरुण के पूजन का विधान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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