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________________ १९८ कृच्छ्व त-कृतयुग राजा नूग को ब्राह्मण की गौ का अपहरण करने के कारण द्वादशरात्रं निराहारः स कृच्छातिकृच्छ्रः । एतत्कृक्छ्रातिकृकलास योनि में जन्म धारण करना पड़ा था। कृच्छ्रद्वयं द्वादशाहसाध्यमशक्तविषयम् । कच्छवत-मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को इस ब्रत का प्रारम्भ [बारह दिन निराहार व्रत करने को कुच्छातिकृच्छ्र होता है । चार वर्ष तक इसका आचरण करना चाहिए। कहते हैं । यह व्रत असमर्थों के लिए बारह दिन का है। इसके देवता गणेशजी हैं। एक वर्ष तक चतुर्थी को एक प्रायश्चित्तविवेक में ब्रह्मपुराण से निम्नांकित श्लोक उद्धृत समय आहार करके जीवनयापन करना चाहिए, द्वितीय वर्ष है, जिसके अनुसार यह व्रत इक्कीस दिन का होता है : रात्रि में भोजन करना चाहिए। तृतीय वर्ष बिना माँगे चरेत् कृच्छ्रातिकृच्छ्रञ्च पिबेत्तोयञ्च शीतलम् । जो मिल जाय उसे खाना चाहिए तथा चौथे वर्ष चतुर्थी एकविंशतिरात्रन्तु कालेष्वेतेषु संयतः ॥ के दिन पूर्णोपवास करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, १.५०१ घोर पापों के प्रायश्चित्त स्वरूप इस व्रत का विधान ५०४, स्कन्दपुराण । किया गया है। ___ यह पापों को दूर करता है, इसलिए 'कृच्छ' कहलाता कृतकोटि-(१) जिसने शास्त्रों की कोटि (सीमा अथवा है । याज्ञवल्क्य का कथन है : श्रेष्ठता) प्राप्त कर ली है उसको कृतकोटि कहते हैं । गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् । 'त्रिकाण्डशेष' के अनुसार यह काश्यप अथवा उपवर्ष का जग्ध्वा परेयुपवसेत् कृच्छ सान्तपनं स्मृतम् ।। पर्याय है। यह शङ्कराचार्य की पदवी भी है। कच्छवतानि-कुछ व्रत कृच्छ्र माने जाते हैं । जैसे सौमायन, (२) प्रसिद्ध है कि ब्रह्मसूत्र पर बौधायन (एक वेदान्तातप्तकृच्छू, कृच्छातिकृच्छू, सान्तपन । यद्यपि ये प्राय चार्य) ने वृत्ति लिखी थी जिसको आचार्य रामानुज ने श्चित्त हैं तथापि हेपाद्रि में इनकी गणना व्रतों में की अपने भाष्य में उद्धृत किया है। जर्मन पण्डित याकोबी गयी है। शूद्रों के लिए इन व्रतों का निषेध है। कुछ का मत है कि बौधायन ने मीमांसासूत्र पर भी वृत्ति अन्य कृच्छ्र व्रतों का भी वर्णन मिलता है, जैसे कार्तिक लिखी है । प्रपञ्चहृदय नामक ग्रन्थ से यह बात सिद्ध होती कृष्ण सप्ती से पैताम्भ कृच्छ्र। इसमें चार दिन तक है और प्रतीत होता है कि बौधायननिर्मित वेदान्तवृत्ति क्रमशः केवल जल, दुग्ध, दधि तथा घृत ही लेना चाहिए, का नाम 'कृतकोटि' था (प्रपञ्चह०, पृ० ३९)। पुलवर एकादशी को उपवास तथा हरिपूजन का विधान है । पुराण, मणिमेखल आदि द्रविड भाषा के प्रबन्धों वैष्णव कृच्छ्र व्रत के समय 'मुन्यन्न' (नीवार के समान में बौधायनकृत मीमांसावृत्ति का कृतकोटि नाम एक धान्य) को तीन दिन तक खाना चाहिए। तदनन्तर से निर्देश है। तीन दिन तक यावक तथा तीन दिन तक उपवास करना कृतक्रिय-धार्मिक क्रिया सम्पन्न करनेवाला व्यक्ति । इसका चाहिए। सांकेतिक रूप किसी कर्म को समाप्त करना है। मनुस्मृति कृच्छातिकृच्छ-कृच्छ का अर्थ है कष्ट अथवा कठिन । (५.९९) के अनुसार : कठिन से कठिन व्रत को 'कृच्छातिकृच्छ्' कहते हैं । वसिष्ठ विप्रः शुध्यत्यपः स्पृष्ट्वा क्षत्रियो वाहनायुधम् । के अनुसार : वैश्यः प्रतोदं रश्मीन् वा यष्टि शूद्रः कृतक्रियः ।। ___ अब्भक्षस्तृतीयः कृच्छ्रातिकृच्छ्रो यावत् सकृदादीत । [ कृतक्रिय ब्राह्मण जल स्पर्श करके, क्षत्रिय वाहन यावदेकवारमुदकं हस्तेन गृहीतु शक्नोति तावन्नवसु दिवसेषु अथवा अस्त्र-शस्त्र छूकर, वैश्य कोड़ा अथवा लगाम छूकर भक्षयित्वा त्र्यहमुपवासः कृच्छ्रातिकृच्छ्रः । और शूद्र यष्टि (लाठी) स्पर्श करके शुद्ध होता है।] [जिसमें केवल एक बार जल पिया जाता है वह कृच्छा- कृतयुग-वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू विश्व की चार सीमाएँ तिकृच्छ है । अथवा जिसमें प्रतिदिन एक बार हाथ से जल मानते हैं, जिन्हें 'युग' कहते हैं। ये हैं कृत, त्रेता, द्वापर ग्रहण कर नौ दिनों तक ऐसे ही रहा जाय और तीन दिन एवं कलि । ये नाम पासे के पहलुओं (पक्ष) के अनुसार पूर्ण (जलरहित) उपवास किया जाय वह कृच्छाति- रखे गये हैं। कृत सर्वोत्कृष्ट है, जिसके पहलू पर चार कृच्छ्र है ।] सुमन्तु के अनुसार : बिन्दु होते हैं, ता पर तीन, द्वापर पर दो एवं कलि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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