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________________ कुरुक्षेत्र १९१ जिसको गरुड़ पुनः पृथ्वी पर ले आये । जिन-जिन स्थानों पर यह अमृतघट (कुम्भ ) रखा गया वहाँ अमृतबिन्दुओं के छलक जाने से वे सभी प्रदेश पुण्यस्थल हो गये । वहाँ निश्चित समय पर स्नान-दान-पुण्य करने से अमृत-पद ( मोक्ष ) की प्राप्ति होती है। प्राचीन धर्मशास्त्रग्रन्थों में उक्त कुम्भयोगों का उल्लेख नहीं पाया जाता है । कुरुक्षेत्र-अम्बाला से २५ मील पूर्व स्थित एक प्राचीन तीर्थ । ब्राह्मणयुग में कुरुक्षेत्र बहुत ही पवित्र स्थल माना जाता था। शतपथ ब्राह्मण ( ४.१.५.१३ ) के अनुसार देवताओं ने कुरुक्षेत्र में यज्ञाहुति दी थी । मैत्रायणी संहिता में भी यही बात कही गयी है। इससे स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणयुग के वैदिक लोग कुरुक्षेत्र में यज्ञ करने को सर्वाधिक महत्त्व देते थे। यह वैदिक संस्कृति का केन्द्र था, इसलिए यहाँ अधिक यज्ञ होना स्वाभाविक है और इसी कारण इसे 'धर्मक्षेत्र' भी कहा गया है । तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार देवताओं ने कुरुक्षेत्र में एक सत्र पूरा किया था। इसकी वेदी कुरुक्षेत्र में ही थी। इसके दक्षिणी भाग को खाण्डव तथा उत्तरी भाग को तून, मध्यभाग को परीण तथा मरु को उत्कर कहा गया है । इससे यह ज्ञात होता है कि खाण्डव, तून तथा परीण कुरुक्षेत्र के सीमान्त प्रदेश थे और मरु प्रदेश कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। महाभारत में कुरुक्षेत्र के पवित्र गुणों का उल्लेख किया गया है। ऐसा ज्ञात होता है कि इसकी सीमा दक्षिण में सरस्वती तथा उत्तर में दृषद्वती नदी तक थी। वनपर्व (८६.६ ) में कुरुक्षेत्र को 'ब्रह्मावर्त' कहा गया है । यही बात वामन पुराण तथा मनुस्मृति में भी किञ्चित् परिवर्तन के साथ कही गयी है । इस प्रकार आर्यावर्त में ब्रह्मावर्त सर्वाधिक पवित्र माना गया है और कुरुक्षेत्र ऐसा ही स्थल है। ब्राह्मणयुग में सर्वाधिक पवित्र सरस्वती कुरुक्षेत्र से ही होकर बहती थी और मरु भूमि को भी, जहाँ वह अदृश्य हो जाती है, पवित्र स्थल माना गया था। मूलतः कुरुक्षेत्र ब्रह्मा की वेदी कहलाता था, तदुपरान्त इसे समन्तपञ्चक तब कहा गया जब परशुराम ने पिता की हत्या के बदले में क्षत्रियों के रक्त से पांच सरोवरों का निर्माण किया। फिर उनके पितरों के वरदान से यह पवित्र स्थल हो गया। बाद में महाराज कुरु के नाम पर इसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा। वामनपुराण के अनुसार कुरुक्षेत्र का अर्धव्यास पाँच योजन तक है। पुराणों में कुरुक्षेत्र को कई नामों से अभिहित किया गया है । इनमें कुरुक्षेत्र, समन्तपञ्चक, विनशन, सन्निहत्य, ब्रह्मसर और रामहृद नाम प्रमुख हैं। अत्यन्त प्राचीन काल में कुरुक्षेत्र वैदिक संस्कृति का केन्द्र था। धीरे-धीरे यह केन्द्र पूर्व तथा दक्षिण की ओर खिसकता गया और अन्ततः मध्यदेश ( गङ्गा और यमुना के बीच का प्रदेश) भारतीय संस्कृति का केन्द्र हो गया । महाभारत के वनपर्व ( अ० ८३ ) के अनुसार जो लोग कुरुक्षेत्र में रहते है वे सभी पापों से मुक्त है । इसके अतिरिक्त जो यह कहता है कि मैं कुरुक्षेत्र जाऊँगा और वहाँ रहँगा, वह भी पापमुक्त हो जाता है। संसार में इससे अधिक पवित्र स्थल दूसरा कोई नहीं है । कुरुक्षेत्र की धूलि का कण भी यदि कोई महान् पापी स्पर्श करे तो वह कण ही उसके लिए स्वर्ग हो जाता है । अन्यत्र ग्रह, नक्षत्र और तारों के भी पतन का भय बना रहता है, परन्तु जो कुरुक्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त होते हैं वे पुनः मर्त्यलोक में नहीं आते (नारदीय पुराण, ११.६४.२३-२४) । ___ नारदीय पुराण ( उत्तरार्ध, अ० ६५ ) में कुरुक्षेत्र के लगभग सौ तीर्थों का नामाङ्कन किया गया है । इनमें से कुछ का ही विवरण यहाँ दिया जा सकता है । सर्वप्रथम ब्रह्मसर या पवनहद का नाम आता है, जहाँ राजा कुरु योगी के रूप में निवास करते थे। इस झील की लम्बाई पूर्व से पश्चिम ३५४६ फुट तथा चौड़ाई उत्तर से दक्षिण १९०० फुट है । वामन पुराण का मत है कि इसकी सीमा अर्ध योजन थी । चक्रतीर्थ की भूमि पर कृष्ण ने भीष्म पर आक्रमण करने के लिए चक्र धारण किया था । व्यासस्थली थानेश्वर से १७ मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित आधुनिक वनस्थली है। अस्थिपुर थानेश्वर के पश्चिम तथा औजसघाट के दक्षिण में स्थित है। यहाँ महाभारतयुद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए सैनिकों का अन्तिम संस्कार किया गया था। कनिंघम के भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के अनुसार चक्रतीर्थ ही अस्थिपुर है और अलबीरूनी के युग में यह कुरुक्षेत्र का सबसे प्रसिद्ध मन्दिर था। सरस्वतीतट पर स्थित पृथूदक वनपर्व में बहुत ही उच्च स्तर का तीर्थ माना गया है। उसमें कहा गया है कि कुरुक्षेत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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