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________________ १८८ कीतिव्रत-कुत्स चैतन्य महाप्रभु की ही मूर्ति किसी-किसी मन्दिर में पायी यह कश्मीर में उपजती है, अतः दुर्लभता के कारण जाती है। पूजा में प्रधानता संकीर्तन की रहती है। इसके स्थान पर रोली का उपयोग होता है इसलिए अब 'कीर्तनीय' (प्रधान संकीर्तक) तथा उसके दल वाले जग- रोली ही कुंकुम नाम से प्रचलित है। रोली हलदी से मोहन (प्रधान मन्दिर के सामने के भाग) में बैठते हैं तथा बनती है अतः यह भी मांगलिक प्रतीक है, जो स्मार्तों के झाल एवं मृदंग बजाकर कीर्तन करते हैं। कीर्तनीय द्वारा देवी की पूजा में यन्त्र (देवी की प्रतिमासूचक वस्तु) बीच-बीच में आत्मविभोर हो नाच भी उठता है। एक पर चढ़ाया जाता है। या अधिक बार 'गौरचन्द्रिका' के गायन का नियम है। कुक्कुटी-मर्कटीव्रत-भाद्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का कीर्तिवत-यह संवत्सरवत है। इसमें व्रती पीपल वृक्ष, अनुष्ठान होता है । प्रत्येक सप्तमी को व्रत करते हुए एक सूर्य तथा गङ्गा को प्रणाम करता है, इन्द्रियों का निग्रह वर्ष तक यह क्रम चलाना चाहिए । सप्तमी चाहे कृष्णकर एक स्थान पर निवास करता है, केवल मध्याह्न में पक्षीय हो या शुक्लपक्षीय । अष्टमी के दिन तिल, चावल एक बार भोजन करता है। इस प्रकार का आचरण एक (गुड़ से युक्त) ब्राह्मण को दान में देना चाहिए । एक वृत्त वर्ष तक किया जाता है । व्रत की समाप्ति के पश्चात् व्रती में भगवान् शिव तथा अम्बिका की आकृतियाँ बनाकर किसी अच्छे सपत्नीक ब्राह्मण का पूजन करता है तथा उनका पूजन करें। 'तिथितत्व' (पृ. ३७) में इसे उसे तीन गौओं के साथ एक सुवर्णवृक्ष दान में देता है। कुक्कुटीव्रत कहा गया है। व्रत करने वाले को जीवन इस व्रत के आचरण से मनुष्य यश तथा भूमि प्राप्त पर्यन्त भुजा में सुवर्ण अथवा रजततार से युक्त सूत के धागे करता है। बाँधे रहना चाहिए। कथा है कि एक रानी तथा राज पुरोहित की पत्नी मर्कटी अर्थात् वानरी तथा कुक्कुटी कीर्तिसंक्रान्तिव्रत-संक्रान्ति के दिन धरातल पर सूर्य की अर्थात् मुर्गी हो गयी थीं, क्योंकि वे इस धागे को बाँधना आकृति खींचकर उस पर सूर्य की प्रतिमा स्थापित करके भूल गयी थीं। इस कथा का वर्णन कृष्ण ने युधिष्ठिर से पूजन किया जाता है । एक वर्ष पर्यन्त यह अनुष्ठान होना किया है। चाहिए। इसके फलस्वरूप मनुष्य को यश, दीर्घायु, राज्य कुक्कुटेश्वरतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में लिखित तन्त्रों तथा स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। की सूची में सोलहवाँ स्थान 'कुक्कुटेश्वर तन्त्र' को कोलक-किसी अनुष्ठान में मुख्य मन्त्र के पूर्व जो पाठ किया जाता है उसको कीलक कहते हैं। इसका शाब्दिक अर्थ कुण्डलिया-(गिरिधर कविराय कृत) नैतिक उपदेशों से है 'कील ठोंक कर दृढ़ता से गाड़ना' । कील दृढ़ता का भरी एवं सामाजिक उपयोगितापूर्ण कुण्डलियों की रचना, प्रतीक है । कीलकस्तोत्र का उदाहरण दुर्गासप्तशती में देखा जो अठारहवीं शताब्दी के एक सुधारवादी हिन्दी कवि जा सकता है, जिसमें चण्डीपाठ के पूर्व कुछ अन्य गिरिधर कविराय ने की है। हिन्दी नोति साहित्य में पवित्र स्तोत्र पढ़े जाते हैं, जैसे कवच, कोलक एवं अर्गला गिरिधर कविराय की कुण्डलियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। स्तोत्र जो मार्कण्डेय एवं वराह पुराण के उद्धरण हैं। कुण्डिकोपनिषद्-त्याग-वैराग्य प्रतिपादक एक उपनिषद् । कीलाल-ऋग्वेद के सिवा अन्य संहिताओं में 'कीलाल' संन्यास धर्म की निदर्शक उपनिषदों में यह प्रमुख मानी शब्द का प्रयोग 'मीठे पेय' अर्थ में हआ है। पुरुषमेध यज्ञ जाती है। की बलिसूची में सुराकार का नाम भी कीलाल के रूप कत्स-ऋग्वेदीय मन्त्रों के साक्षात्कर्ता ऋषियों में से एक में आया है, इसलिए इस पेय की प्रकृति भी निश्चय ही ऋषि । अष्टाध्यायी (पाणिनि) के सूत्रों में जिन पूर्वाचार्यों सुरा के समान रही होगी। के नाम आये हैं उनमें कुत्स भी हैं । पौराणिक कथाओं के कुंकुम-केसर, जो सुगन्ध और रक्त-पीत रंग के लिए अनुसार इन्द्र ने इन्हें बहुत ताडित किया, किन्तु फिर प्रसिद्ध अलंकरण द्रव्य है। देवपूजा में चन्दन के साथ प्रसन्न होकर सुष्ण दैत्य से इनकी रक्षा की। एक बार मिलाकर इसका उपयोग होता है। लक्ष्मी, दुर्गा आदि इन्द्र इनको अमरावती में अपने प्रासाद में ले गया । इन्द्र देवियों की पूजा में कुंकुम अलग से भी चढ़ाई जाती है। और कुत्स दोनों आकार और सौन्दर्य में समान थे। इन्द्र प्राप्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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