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________________ काश्यप-कीर्तनीय काश्यप — एक प्राचीन वेदान्ताचार्य प्राचीन काल में काश्यप का भी एक सूत्रग्रन्थ था । शाण्डिल्य ने अपने सूत्रग्रन्थ में काश्यप तथा वादरायण के मत का उल्लेख करके अपना सिद्धान्त स्थापित किया है। उनके मत में काश्यप भेदवादी तथा बादरायण अभेदवादी थे । शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र में काश्यप का उल्लेख है । कात्यायन के वाजसनेय प्रातिशाख्य में काश्यप का शिक्षा (वेदाङ्ग) के पूर्वाचार्य के रूप में उल्लेख हुआ है । काश्यप मानुषी बुद्ध के एक अवतार भी माने जाते हैं । किनाराम बाबा महात्मा किनाराम का जन्म बनारस जिले के क्षत्रिय कुल में विक्रम सं० १७५८ के लगभग हुआ द्विरागमन के पूर्व ही पत्नी का देहान्त हो गया । उसके कुछ दिन बाद उदास होकर घर से निकल गये और गाजीपुर जिले के कारो नामक गाँव के संयोगी वैष्णव महात्मा शिवादास कायस्थ की सेवा-टहल में रहने लगे और कुछ दिनों के बाद उन्हीं के शिष्य हो गये । कुछ वर्ष गुरुसेवा करके उन्होंने गिरनार पर्वत की यात्रा की। वहाँ भगवान् दत्तात्रेय का दर्शन किया और उनसे अवधूत वृत्ति की शिक्षा लेकर उनकी आज्ञा से काशी लौटे। यहां उन्होंने बाबा कालूराम अधोरपन्थी से अधोर मत का उपदेश लिया। दे० 'अघोर मत' अथवा 'कापा'लिक' वैष्णव भागवत और फिर अघोरपन्थी होकर किनाराम ने उपासना का एक अद्भुत सम्मिश्रण किया। वैष्णव रीति से ये रामोपासक हुए और अघोर पन्थ की रीति से मद्यमांसादि के सेवन में इन्हें कोई आपत्ति न हुई। साथ ही इनके समक्ष जाति-पांति का कोई भेदभाव न था । इनका पन्थ अलग ही चल पड़ा। इनके शिष्य हिन्दू-मुसलमान सभी हुए । --- जीवन में अपने दोनों गुरुओं की मर्यादा निवाहने के लिए इन्होंने वैष्णव मत के चार स्थान मारुफपुर, नयी डीह, परानापुर और महूपुर में और अघोर मत के चार स्थान रामगढ़ (बनारस) देवल (गाजीपुर), हरिहरपुर (जौनपुर) और कृमिकुण्ड (काशी) में स्थापित किये। ये मठ अब तक चल रहे हैं । इन्होंने भदैनी में कृमिकुण्ड पर स्वयं रहना आरम्भ किया। काशी में अब भी इनकी प्रधान गद्दी कृमिकुण्ड पर है। इनके अनुयायी सभी जाति के लोग हैं । रामावतार की उपासना इनकी विशेषता है । Jain Education International १८७ ये तीर्थयात्रा आदि मानते हैं, इन्हें औघड़ भी कहते हैं । ये देवताओं की मूर्ति की पूजा नहीं करते। अपने शवों को समाधि देते हैं, जलाते नहीं । किनाराम बाबा ने संवत् १८०० वि० मे १४२ वर्ष की अवस्था में समाधि ली। किनारामी ( अघोरपन्थी ) - दे० 'किनाराम' । किमिच्छावत- मार्कण्डेय पुराण के अनुसार इस व्रत में अतिथि से पूछा जाता है कि वह क्या चाहता है ? इसके विषय में करन्धम के पुत्र अवीक्षित की एक कथा आती है, जिसके अनुसार उसकी माता ने इस व्रत का आचरण किया था तथा उसने अपनी माता को सर्वदा इस व्रत का आचरण करने का वचन दिया था। अवीक्षित ने घोषणा की थी : शृण्वन्तु मेऽचिनः सर्वे प्रतिज्ञातं मया सदा । किमिच्छय ददाम्येष क्रियमाणे किमिच्छ के || ( मार्कण्डेय पुराण, १२२.२० ) [मेरे सब याचक सुन लें, किमिच्छक व्रत करते हुए मैंने प्रतिज्ञा की है - आप क्या चाहते हैं, में वही दान करूँगा । ] किरण - रौद्रिक आगमों में से यह एक आगम है । 'किरणागम' की सबसे पुरानी हस्तलिखित प्रति ९२४ ई० (हरप्रसाद शास्त्री, २, १२४ ) की उपलब्ध है । किरणावली-वैशेषिक दर्शन के ग्रन्थलेखक आचार्यों में उदयन का महत्वपूर्ण स्थान है। उनका वैशेषिक मत पर पहला ग्रन्थ है 'किरणावली', जो प्रशस्तपाद के भाष्य का व्याख्यान है | यह दशम शताब्दी की रचना है । किरणावलीप्रकाश वर्धमान उपाध्याय द्वारा रचित द्वादश शताब्दी का यह ग्रन्थ उदयन कृत 'किरणावली' को व्याख्या है | कीर्तन सोहिला - सिक्खों की एक प्रार्थनापुस्तक । सिक्खों की मूल प्रार्थनापुस्तिका का नाम 'पञ्जग्रन्थी' है। इसके पाँच भाग है - (१) जपजी, (२) रहिराम, (३) कीर्तन सोहिला, (४) सुखमनी और (५) आसा दो वार । इनमें से प्रथम तीनों का खालसा सिक्खों को नित्य पाठ करना चाहिए। कीर्तनीय चैतन्य सम्प्रदाय में सामूहिक कीर्तन के प्रमुख को कीर्तनीय कहते हैं । इस सम्प्रदाय के मन्दिरों में प्रायः राधा-कृष्ण की मूर्तियों के साथ ही चैतन्य, अद्वैत एवं नित्यानन्द की मूर्तियां भी स्थापित रहती हैं। केवल For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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