SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कलियुग १६७ अधार्मिकों के प्रयास से क्षीण होता हुआ अन्त में नष्ट हो जायेगा। उसमें प्रजा लोभी, दुराचारी, निर्दय, व्यर्थ वैर। करनेवाली, दुर्भगा, भूरितर्ष (अत्यन्त तृषित) तथा शूद्र- दासप्रधान होगी। जिसमें माया, अनृत, तन्द्रा, निद्रा, हिंसा, विषाद, शोक, मोह, भय, दैन्य अधिक होगा वह तामसप्रधान कलियुग कहलायेगा । उसमें मनुष्य क्षुद्रभाग्य, अधिक खानेवाले, कामी, वित्तहीन और स्त्रियाँ स्वैरिणी और असती होंगी । जनपद दस्युओं से पीड़ित, वेद पाखण्डों से दूषित, राजा प्रजाभक्षी, द्विज शिश्नोदरपरायण, विद्यार्थी अव्रत और अपवित्र, कुटुम्बी भिक्षाजीवी, तपस्वी ग्रामवासी और संन्यासी अर्थलोलुप होंगे । स्त्रियाँ ह्रस्वकाया, अतिभोजी बहुत सन्तानवाली, निर्लज्ज, सदा कटु बोलनेवाली, चौर्य, माया और अतिसाहस से परिपूर्ण होंगी। क्षुद्र, किराट और कूटकारी व्यापार करेंगे। लोग विना आपदा के भी साधु पुरुषों से निन्दित व्यवसाय करेंगे। भृत्य द्रव्यरहित उत्तम स्वामी को भी छोड़ देंगे। पति भी विपत्ति में पड़े कुलीन भृत्य को त्याग देंगे। लोग दूध न देनेवाली गाय को छोड़ देंगे । कलि में मनुष्य माता-पिता, भाई, मित्र, जाति को छोड़कर केवल स्त्री से प्रेम करेंगे, साले के साथ संवाद में आनन्द लेंगे, दीन और स्त्रैण होंगे । शूद्र दान लेंगे और तपस्वी वेश से जीविका चलायेंगे। अधार्मिक लोग उच्च आसन पर बैठकर धर्म का उपदेश करेंगे। कलि में प्रजा नित्य उद्विग्न मनवाली, दुर्भिक्ष और कर से पीड़ित, अन्नरहित भूतल में अनावृष्टि के भय से आतुर; वस्त्र, अन्न, पान, शयन, व्यवसाय, स्नान, भूषण से हीन; पिशाच के सदश दिखाई पड़नेवाली होगी। लोग कलि में आधी कौड़ी के लिए भी विग्रह करके मित्रों को छोड़ देंगे, प्रियों का त्याग करेंगे और अपने प्राणों का भी हनन करेंगे। मनुष्य अपने से बड़ों और माता-पिता, पुत्र और कुलीन भार्या की रक्षा नहीं करेंगे। लोग क्षुद्र और शिश्नोदर परायण होंगे। पाखण्ड से छिन्न-भिन्न बुद्धि वाले लोग जगत् के परम गुरु, जिनके चरणों पर तीनों लोक के स्वामी आनत हैं, उन भगवान् अच्युत की पूजा प्रायः नहीं करेंगे।" ___ "द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) व्रात्य (सावित्री- पतित) और राजा लोग शूद्रप्राय होंगे । सिन्धु के तट, चन्द्रभागा (चिनाव) की घाटी, काञ्ची और कश्मीरमण्डल में शूद्र, व्रात्य, म्लेच्छ तथा ब्रह्मवर्चस से रहित लोग शासन करेंगे। ये सभी राजा समसामयिक और म्लेच्छप्राय होंगे। ये सभी अधार्मिक और असत्यपरायण होंगे । ये बहुत कम दान देनेवाले और तीव्र क्रोध वाले, स्त्री, बालक, गौ, ब्राह्मण को मारनेवाले और दूसरे की स्त्री तथा धन का अपहरण करेंगे । ये उदित होते हो अस्त तथा अल्प शक्ति और अल्पायु होंगे । असंस्कृत, क्रियाहीन, रजस्तमोगुण से घिरे, राजा रूपी ये म्लेच्छ प्रजा को खा जायेंगे । इनके अधीन जनपद भी इन्हीं के समान आचार वाले होंगे और वे राजाओं द्वारा तथा स्वयं परस्पर पीडित होकर क्षय को प्राप्त होंगे।" "इसके पश्चात् प्रतिदिन धर्म, सत्य शौच, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मृति कलिकाल के द्वारा क्षीण होंगे। कलि में मनुष्य धन के कारण ही जन्म से गुणी माना जायेगा। धर्म-न्याय-व्यवस्था में बल ही कारण होगा। दाम्पत्य सम्बन्ध में केवल अभिरुचि हेतु होगी और व्यवहार में माया । स्त्रीत्व और पुंस्त्व में रति और विप्रत्व में सूत्र कारण होगा। आश्रम केवल चिह्न से जाने जायेंगे और वे परस्पर आपत्ति करनेवाले होंगे। अवृत्ति में न्यायदौर्बल्य और पाण्डित्य में वचन की चपलता होगी । असाधत्व में दरिद्रता और साधुत्व में दम्भ प्रधान होगा । विवाह में केवल स्वीकृति और अलंकार में केवल स्नान शेष रहेगा । दूर घूमना ही तीर्थ और केश धारण करना ही सौन्दर्य समझा जायेगा। स्वार्थ में केवल उदर भरना, दक्षता में कुटुम्ब पालन, यश में अर्थसंग्रह होगा । इस प्रकार दुष्ट प्रजा द्वारा पृथ्वी के आक्रान्त होने पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में जो बली होगा वही राजा बनेगा। लोभी, निघृण, डाकू, अधर्मी राजाओं द्वारा धन और स्त्री से रहित होकर प्रजा पहाड़ों और जंगलों में चली जायेगी। दुर्भिक्ष और कर से पीड़ित, शाक, मूल, आमिष, क्षौद्र, फल, पुष्प भोजन करनेवाली प्रजा वृष्टि के अभाव में नष्ट हो जायेगी । बात, तप, प्रावृट, हिम, क्षुधा, प्यास, व्याधि, चिन्ता आदि से प्रजा सन्तप्त होगी। कलि में परमायु तीस बीस वर्ष होगी । कलि के दोष से मनुष्यों का शरीर क्षीण होगा। मनुष्यों का वर्णाश्रम और वेदपथ नष्ट होगा। धर्म में पाखण्ड की प्रचरता होगी और राजाओं में दस्यओं की, वर्गों में शूद्रों की, गौओं में बकरियों की, आश्रमों में गार्हस्थ्य की, बन्धुओं में यौन सम्बन्ध की, ओषधियों में अनुपाय की, वृक्षों में शमी की, मेघों में विद्युत की, घरों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy