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________________ कर्मसायं-करणग्रन्थ स्थान पर कर्मों के स्वरूप से त्याग करने पर जोर दिया त्यागपूर्ण आश्रम थे। इनकी अवहेलना स्वाभाविक थी ही। है। वे जिज्ञास और ज्ञानी दोनों के लिए सर्व कर्मसंन्यास इस प्रकार गृहस्थाश्रम ही प्रधान आश्रम रहा एवं एक की आवश्यकता बतलाते हैं। उनके मत में निष्काम कर्म आश्रम में रहकर भी अन्य आश्रमों के नियम व कर्मों केवल चित्तशुद्धि का हेतु है। परमपद की प्राप्ति कर्म- का (सुविधा के अनुसार) पालन होता रहा । संन्यासपूर्वक श्रवण, मनन, निदिध्यासन करके आत्मतत्त्व उधर भिन्न वर्गों के लिए जो भिन्न-भिन्न कार्य का बोध प्राप्त होने पर ही हो सकती है। निश्चित किये गये थे, इस नियम में भी शिथिलता आने __श्रीमद्भगवद्गीता में इससे भिन्न मत प्रकट किया लगी। ब्राह्मण शस्त्रोपजीवो होने लगे । द्रोणाचार्य, गया है । इसके अनुसार काम्य कर्मों का त्याग तथा नित्य कृपाचार्य आदि इसके उदाहरण है। ययाति के पुत्र यदु और नैमित्तिक कर्मों का अनासक्तिपूर्वक सम्पादन ही कर्म- आदि को राज्याधिकार नहीं मिला तो वे पशुपालनादि संन्यास है; यज्ञार्थ अथवा भगवदर्पण बुद्धि से कर्म करने से करने लगे । समाज की आवश्यकता के अनुसार ब्राह्मण, बन्ध नहीं होता। गीता (३. १५-२५) में यज्ञार्थ कर्म के क्षत्रिय भी अधिकांश अपने-अपने काम छोड़कर वैश्यवत सम्बन्ध में निम्नांकित कथन है : गार्हस्थ्य-धर्म पालन करने लगे थे। इस प्रकार प्राचीन कर्म ब्रह्मोद्धवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । काल में ही कर्मसार्य प्रारम्भ हो गया था। वर्तमान तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।। काल में तो यह साङ्कर्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । है। अनेक सामाजिक दुर्व्यवस्थाओं का यह एक बहुत बड़ा अघायरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।। कारण है। xxxx कर्मेन्द्रिय--मनुष्य की दस इन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ सबका तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर । स्वामी मन होता है । दस इन्द्रियों में पाँच ज्ञानेन्द्रिय और असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ।। पाँच कर्मेन्द्रिय है। वाक्, हस्त, पाद, गुदा और उपस्थ कर्मणव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं जिनका शरीर के हितार्थ कार्यात्मक लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ।। उपयोग होता है। इसी प्रकार (४.३१ में) कहा है : कर्मेन्द्रियों का संयम धार्मिक साधना का प्रथम चरण यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् । है। किन्तु इनका संयम भी आन्तरिक मन से होना नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ।। चाहिए; बाहरी हठपूर्वक नहीं। जो बाहर से अपनी गीता (६.१ में) पुनः कथन है : इन्द्रियों को रोकता है किन्तु भीतर से उनके विषयों का अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः । ध्यान करता है, वह मुढात्मा और मिथ्याचारी है। गीता स संन्यासी च योगी च न निरग्निन चाक्रियः ।। (३.६,७) में कथन है : कर्मसार्य-अपने स्वभावज कर्म को छोड़कर लोभ अथवा कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । भयवश दूसरे के कर्म को जीविकार्थ करना कमसार्य इन्द्रियार्थान्विमुढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।। कहलाता है । प्राचीन काल में प्रत्येक वर्ण एवं आश्रम के यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽजन । अलग-अलग निर्धारित नियम एवं कर्म थे। (दे० 'वर्ण' कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसनः स विशिष्यते ।। और 'आश्रम'1) ब्रह्मचर्याश्रम में प्रवेश का अधिकार कर्णप्रयाग-यह तीर्थस्थल गढ़वाल जिले के अन्तर्गत है। प्रथम तीन वर्गों को, गहस्थाश्रम में सभी वर्गों को, वान- यहाँ भागीरथी और अलकनन्दा का संगम है। प्रस्थ में केवल प्रथम दो को था एवं संन्यास में प्रवेश एक कर्णश्रवा (आङ्गिरस)-----पञ्चविंश ब्राह्मण (१३.११,१४) में मात्र ब्राह्मण कर सकता था । कालान्तर में आश्रम के इन्हें साम गान का ऋषि बताया गया है। यही बात नियम ढीले पड़े। ब्रह्मचर्याश्रम के कतिपय संस्कारों को दावसु के बारे में भी कही गयी है। न पूरा कर ब्राह्मण भी अपने बालकों को गृहस्थाश्रम में करण ग्रन्थ-वर्तमान चान्द्र मास, तिथि आदि पञ्चाङ्ग की प्रवेश करा देते थे। वानप्रस्थ और संन्याग तो अत्यन्त विधि अत्यन्त प्राचीन है और नैदिक काल से चली आयी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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