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________________ १६२ कर्मविभाग-कर्मसंन्यास यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । हो नहीं सकती थी। वस्तुओं की अदला-बदली बिना कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।७।। सबको सब चीजें मिल नहीं सकती थीं। चारों वर्णों को नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । अन्न, दूध, घी, कपड़े-लत्ते आदि सभी वस्तुएँ चाहिए। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥८॥ इन वस्तुओं को उपजाना, तैयार करना, फिर जिसकी यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । जिसे जरूरत हो उसके पास पहुंचाना; यह सारा काम तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ।।९।। प्रजा के एक बड़े समुदाय को करना ही चाहिए। इसके [ हे निष्पाप अर्जुन ! इस संसार में दो प्रकार की लिए वैश्यों का वर्ण हआ। किसान, व्यापारी, ग्वाले, निष्ठाए मेरे द्वारा पहले कही गयी हैं-ज्ञानियों की ज्ञान कारीगर, दूकानदार, बनजारे ये सभी वैश्य हए । शिक्षक योग से और योगियों (कर्मयोगियों) की (निष्काम) कर्म- को, रक्षक को, वैश्य को छोटे-मोटे कामों में सहायक योग से । मनुष्य केवल कर्म के अनारम्भ से नि कर्मता को । और सेवक की जरूरत थी। धावक तथा हरकारे की, प्राप्त नहीं होता है और न केवल कर्मों के त्याग से सिद्धि हरवाहे की, पालकी ढोने वाले की, पशु चराने वाले की, को प्राप्त करता है। क्योंकि कोई भी पुरुष किसी काल लकड़ी काटने वाले की, पानी भरने वाले की, बासन में क्षणमात्र भी विना कर्म किये नहीं रहता है। निश्चय- मांजने वाले की, कपड़े धोने वाले की जरूरत थी । ये पूर्वक सभी प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा विवश होकर कर्म जरूरतें शूद्रों ने पूरी की। इस तरह जनसमुदाय की करते हैं । जो कर्मेन्द्रियों को बाहर से रोककर भीतर से सारी आवश्यकताएं प्रजा में पारस्परिक कर्मविभाग से मन के द्वारा इन्द्रियों के विषयों का स्मरण करता रहता पूरी हुई। यही कर्मविभाग अंग्रेजी के भ्रमोत्पादक उल्थे है वह विमुढात्मा मिथ्याचारी कहा जाता है। किन्तु हे से आज 'श्रमविभाग' बन गया है। प्रजा में यह कर्मअर्जुन ! (इसके विपरीत) मन द्वारा भीतर से इन्द्रियों का विभाग तथा समाज में यह श्रमविभाग सनातन है। "स्वे नियन्त्रण करके कर्मेन्द्रियों से अनासक्त होकर जो कर्मयोग स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः" गीता ने इसी कर्मका आचरण करता है वह श्रेष्ठ माना जाता है। तुम सार्य से बचने की शिक्षा दी है। ऐसा कर्मविभाग शास्त्रविहित कर्म को करो। क्योंकि कर्म न करने की हिन्दू-दण्डनीति अथवा समाजशास्त्र में है। ऐसा अद्भत अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है । तुम्हारे कर्म न करने से तुम्हारी संगठन संसार में दूसरा नहीं है। शरीरयात्रा भी संभव न होगी। (सभी कर्मों से बन्ध नहीं चारों वर्गों का कमविभाग मन आदि के धर्मशास्त्रों में होता) यज्ञार्थ (लोकहित) के अतिरिक्त कर्म करने से लोक इस प्रकार बतलाया गया है : में मनुष्य कर्मबन्धन में फँसता है। इसलिए हे अर्जुन ! ब्राह्मण-पठन-पाठन, यजन-याजन, दान-प्रतिग्रह; आसक्ति से मुक्त होकर यज्ञार्थ (समष्टि के कल्याण के क्षत्रिय-पठन, यजन, दान; रक्षण, पालन, रंजन; लिए कर्म का सम्यक् प्रकार से आचरण करो।] वैश्य-पठन, यजन, दान; कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य; कर्मविभाग–यह वर्णविभाग का पर्याय है। मानवसमूह शूद्र-पठन, यजन (मन्त्ररहित), दान; अन्य वर्णों को की जितनी आवश्यकताएँ हैं उनके विचार से विधाता ने सेवा (सहायता)। सत्ययुग में चार बड़े विभाग किये। शिक्षा की पहली आव- इन्हीं कमी से जीवन में सिद्धि प्राप्त होती है : श्यकता थी। इसीलिए सबसे पहले-देव-दानव-यज्ञादि से यतः प्रवृत्तिभूतानां येन सर्वमिदं ततम् । भी पहले-बड़े तेजस्वी, प्रतिभाशाली, सर्वदर्शी ब्राह्मणों स्वकर्मणा तमभ्यर्य सिद्धि विन्दति मानवः ।। की सृष्टि की । इन्हीं से सारी पृथ्वी के लोगों ने सब कुछ (गीता १८. ४६) सीखा। राष्ट्र की रक्षा, प्रजा की रक्षा, व्यक्ति की रक्षा [जिस परमात्मा से सभी जीवधारियों की उत्पत्ति हुई दूसरी आवश्यकता थी। इस काम में कुशल, बाहुबल को है और जिसके द्वारा यह सम्पूर्ण विश्व का वितान तना विवेक से काम में लाने वाले क्षत्रिय हुए। शिक्षा और गया है, अपने स्वाभाविक कर्मी से उसकी अर्चना करके रक्षा से भी अधिक आवश्यक वस्तु थी जीविका । अन्न के मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है। ] बिना प्राणी जी नहीं सकता था। पशुओं के बिना खेती कर्मसंन्यास-स्वामी शङ्कराचार्य ने अपने भाष्यों में स्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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