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________________ कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी) १५९ को आध्यात्मिक कर्म की संज्ञा दी गयी है। अहंकार के दूर करना और समस्त संसार का कल्याण करना उनका विकासक्रम में प्रकृति के निम्नतर स्तर से लेकर उच्चतर कर्तव्य था। स्तर तक जाने के विविध सोपान हैं । जीव अपनी साधना उपर्युक्त त्रिविध भेदों के साथ कर्म के दो भेद अन्य के बल से क्रमशः निम्न स्तरों से ऊर्ध्व स्तरों को प्राप्त प्रकार से भी किये गये हैं। वे हैं-सकाम कर्म और करता है । वासना के भिन्न-भिन्न स्तर हैं । उद्भिज और निष्काम कर्म । सकाम कर्म वासनामूलक होता है। जिस स्वेदज योनियों में वासना के प्राकृतिक और आत्मरक्षा कामना या वासना से कर्म किया जाता है उसी के अनुकूल त्मक रूप मिलते हैं। मनोमय कोष के विकास के अभाव फल की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में इन कर्मों की विधि में उन्हें परसुख से स्वसुख के सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है । और फल वर्णित हैं । सकाम कर्म से मनुष्य को धूमयान अण्डज योनि में इस ओर थोड़ा विकास हआ है। अपने गति और निष्काम कर्म से देवयान गति मिलती है। बच्चों पर प्रेम, दाम्पत्य प्रेम, अपत्य प्रेम आदि इस वासना श्रीमद्भगवद्गीता में इन दो गतियों का वर्णन है। इन के विस्तार के ही रूप हैं। मनुष्ययोनि में इसका सर्वा गतियों को क्रमशः कृष्णगति और शुक्लगति कहते है। पहली से पुनर्जन्म और दूसरी से अपुनरावृत्ति मिलती है । धिक विस्तार है । सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य भोगकामना से किये गये कर्मी का परिणाम जन्म-मरण होता समाज के अङ्ग-प्रत्यङ्ग पर ध्यान रखता है । मनुष्य स्वार्थ से परमार्थ की ओर क्रमशः बढ़ता रहता है। व्यष्टिकेन्द्र है। इस प्रकार सकाम कर्म के द्वारा पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्ति नहीं मिलती। से समष्टि की ओर बढ़ ना उसका स्वभाव है। इसीलिए सकाम कर्मी व्यक्ति अष्टादश फल प्रदायक कर्मों का बाल्यावस्था के व्यष्टिसुख से वह क्रमशः परिवारसुख अनुष्ठान करते हैं । ऐसे व्यक्तियों को जरा-मरण के बन्धन और फिर समाजसुख और देशसुख की ओर उन्मुख होता से मुक्ति कभी नहीं मिल सकती। इनमें आसक्ति का है। इस प्रकार मनुष्य का अहंकार क्रमशः उदारता में प्राधान्य होता है इसलिए पुण्य के बल पर ये स्वर्ग में सुख परिणत हो जाता है। यहाँ तक कि वह संसार के सुख के भोगकर पुण्य क्षय होने पर पुनः मृत्युलोक में आ जाते लिए भी कष्ट सहने को तैयार हो जाता है। उस समय हैं । ऐसे सकाम कर्मी हीन लोक को भी प्राप्त हो सकते उसकी व्यक्तिगत सत्ता का इतना अधिक विस्तार हो हैं। इसलिए सकाम कर्म की अनित्यता तथा तुच्छता को जाता है कि उसकी स्वार्थबुद्धि नष्ट हो जाती है और जानते हए मनुष्य को निष्काम कर्म और वैराग्य का ही परार्थबुद्धि का विकास होता है। ऐसा पवित्रात्मा आध्या अनुष्ठान करना चाहिए। त्मिक प्रगति अधिक करता है। वह ज्ञान और धर्म की सकाम कर्म से प्राप्त स्वर्ग में मनुष्य के पुण्य का क्षय उन्नति में अत्यधिक योग देता है। ऐसा महात्मा अपनी होता है। इसलिए मर्त्यलोक के मिथ्यात्व को जानकर सत्ता का विस्तार करके 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धान्त तत्त्वज्ञानी व्यक्ति वैराग्य का आश्रय ग्रहण करता है । इस को भाव रूप में अपना लेता है। वह विश्वजीवन और प्रकार श्रुति के अनुसार ज्ञानी व्यक्ति पुत्र, धन और यश विश्वप्राण हो जाता है। उसके सभी कर्म जगत्कल्याण के की सभी भौतिक इच्छाओं से विरत हो पूर्ण संन्यास हेतु होते हैं, अतः वह पूर्ण साधुता को प्राप्त हो जाता ग्रहण करता है। निष्काम कर्मयोग से वह पूर्णतः वासनाहै । आध्यात्मिक कर्म ही उसकी योगसाधना है। शून्य हो जाता है और अन्ततः उत्तरायण गति को प्राप्त भागवत के अनुसार सम्पूर्ण चराचर प्राणियों में ब्रह्म । होता है। की सत्ता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विद्यमान है। अतः ___ इसके अतिरिक्त एक तीसरी सहज गति है जिसके अनुउनकी अवज्ञा करके परमेश्वर की पूजा करना गर्हणीय सार मनुष्य को इहलोक में ही मुक्ति मिल जाती है। है । सब अनेक होकर भी एक हैं। अतः प्राणियों के प्रति ज्ञानी पुरुष परमात्मा की सत्ता से विज्ञ होकर उसी बैरभाव को त्यागकर मित्रभाव से सर्वव्यापी परमात्मा का विराट् सत्ता में अपनी सत्ता को विलीन कर देते हैं और पूजन करना चाहिए । सर्वभूतों में परमात्मा की सत्ता की परितृप्त, वीतराग तथा प्रशान्त हो विदेह लाभ करते हैं। अनुभूति ही श्रेयस्कर है। हमारे प्राचीन ऋषियों का अतएव निष्काम कर्मयोगी ज्ञानी होकर मुक्तिपद को प्राप्त जीवन ऐसा ही था। समष्टि जीव के अज्ञानान्धकार को करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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