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________________ आर्य समाज अवलम्बित है। स्वामीजी वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे और धर्म के सम्बन्ध में अन्तिम प्रमाण । आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने देखा कि देश में अपने ही विभिन्न मतों व सम्प्रदायों के अतिरिक्त विदेशी इस्लाम एवं ईसाई धर्म भी जड़ पकड़ रहे हैं। दयानन्द के समाने यह समस्या थी कि कैसे भारतीय धर्म का सुधार किया जाय किस प्रकार प्राचीन एवं अर्वाचीन का तथा पश्चिम एवं पूर्व के धर्म व विचारों का समन्वय किया जाय, जिससे भारतीय गौरव फिर स्थापित हो सके। इसका समाधान स्वामी दयानन्द ने 'वेद' के सिद्धान्तों में खोज निकाला, जो ईश्वर के शब्द हैं । स्वामी दयानन्द के वैदिक सिद्धान्त को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है - 'वेद' शब्द का अर्थ ज्ञान है । यह ईश्वर का ज्ञान है इसलिए पवित्र एवं पूर्ण है । ईश्वर का सिद्धान्त दो प्रकार से व्यक्त किया गया है -१. चार वेदों के रूप में, जो चार ऋषियों ( अग्नि, वायु, सूर्य एवं अङ्ग ) को सृष्टि के आरम्भ में अवगत हुए । २. प्रकृति या विश्व के रूप में, जो वेदविहित सिद्धान्तों के अनुसार उत्पन्न हुआ। वैदिक साहित्य-सन्य एवं प्रकृति-प्रन्य से यहाँ साम्य प्रकट होता है । स्वामी दयानन्द कहते हैं, "मैं वेदों को स्वतः प्रमाणित सत्य मानता हूँ। ये संशयरहित हैं एवं दूसरे किसी अधिकारी ग्रन्थ पर निर्भर नहीं रहते । ये प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो ईश्वर का साम्राज्य है । वैदिक साहित्य के आर्य सिद्धान्त को यहाँ संक्षेप में दिया जाता है- १. वेद ईश्वर द्वारा व्यक्त किये गये है जैसा कि प्रकृति के उनके सम्बन्ध से प्रमाणित है। २. वेद ही केवल ईश्वर द्वारा व्यक्त किये गये है क्योंकि दूसरे ग्रन्थ प्रकृति के साथ यह सम्बन्ध नहीं दर्शाते । ३. वे विज्ञान एवं मनुष्य के सभी धर्मों के मूल स्रोत हैं । आर्यसमाज के कर्तव्यों में से सिद्धान्ततः वो महत्त्वपूर्ण हैं: १. भारत को ( भूले हुए) वैदिक पथ पर पुनः चलाना और २. वैदिक शिक्षाओं को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करना । स्वामी दयानन्द ने अपने सिद्धान्तों को व्यावहारिकता देने, अपने धर्म को फैलाने तथा भारत व विश्व को जाग्रत करने के लिए जिस संस्था की स्थापना की उसे 'आर्य समाज' कहते हैं । 'आर्य' का अर्थ है भद्र एवं 'समाज' Jain Education International ९१ का अर्थ है सभा । अतः आर्यसमाज का अर्थ है 'भद्रजनों का समाज' या 'भद्रसभा' । आर्य प्राचीन भारत का देशप्रेमपूर्ण एवं धार्मिक नाम है जो भद्र पुरुषों के लिए प्रयोग में आता था। स्वामीजी ने देशभक्ति की भावना जगाने के लिए यह नाम चुना । यह धार्मिक से भी अधिक सामाजिक एवं राजनीतिक महत्त्व रखता है । इस प्रकार यह अन्य धार्मिक एवं सुधारवादी संस्थाओं से भिन्नता रखता है, जैसे- ब्रह्मसमाज ( ईश्वर का समाज ), प्रार्थना - समाज आदि । स्वामी दयानन्द की मृत्यु से अब तक की घटनाओं में समाज का दो दलों में बँटना एक मुख्य परिवर्तन है। इस विभाजन के दो कारण थे : (क) भोजन में मांस के उपयोग पर मतभेद और (स) उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में उचित नीति सम्बन्धी मतभेद पहले कारण से उत्पन्न हुए दो वर्ग 'मांसभक्षी दल' एवं 'शाकाहारी दल कहलाते हैं तथा दूसरे कारण से उत्पन्न दो दल 'कॉलेज पार्टी' एवं 'महात्मा पार्टी' (प्राचीन पद्धति पर चलने वाले ) कहलाते हैं । ये मतभेद एक और भी गहरा मतभेद उपस्थित करते हैं जिसका सम्बन्ध स्वामी दयानन्द की शिक्षाओं की मान्यता के परिणाम से है । इस दृष्टि से कॉलेज पार्टी अधिक आधुनिक और उदार है, जबकि महात्मा पार्टी का दृष्टिकोण अधिक प्राचीनतावादी है । कॉलिज पार्टी ने लाहौर में एक महाविद्यालय दयानन्द ऐंग्लोवेदिक कॉलेज' की स्थापना की, जबकि महात्मा पार्टी ने हरिद्वार में 'गुरुकुल' स्थापित किया, जिसमें प्राचीन सिद्धान्तों तथा आदर्शों पर विशेष बल दिया जाता रहा है। संघटन की दृष्टि से इसमें तीन प्रकार के समाज हैं१. स्थानीय समाज, २. प्रान्तीय समाज और ३. सार्वदेशिक समाज । स्थानीय समाज की सदस्यता के लिए निम्नलिखित नियमावली है—१. आर्य समाज के दस नियमों में विश्वास, २ वेद की स्वामी दयानन्द द्वारा की हुई व्याख्यादि में विश्वास ३ सदस्य की आयु कम से कम १८ वर्ष होनी चाहिए, ४. द्विजों के लिए विशेष दीक्षा संस्कार की आवश्यकता नहीं है किन्तु ईसाई तथा मुसलमानों के लिए एक शुद्धि संस्कार की व्यवस्था है । स्थानीय सदस्य दो प्रकार के हैं-प्रथम, जिन्हें मत देने का अधिकार नहीं, अर्थात् अस्थायी सदस्य द्वितीय, जिन्हें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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