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________________ [८] सामर्थ्य है कि अतिशय विस्तृत शब्दसागरकी चरम सीमाका पता लगावे । हाँ, यह तो अतिप्राचीनकालमें शब्दब्रह्मोपासक मुनियोंका ही सामर्थ्य था कि वे योगाभ्यासके बल से साक्षात् मन्त्रद्रष्टा होते थे और उन्हें किसी ग्रन्थसे किसी प्रकारकी भी सहायता अपेक्षित नहीं रहती थी, इसी आधारपर सर्व सर्वार्थवाचका' (सष शब्द सत्र अर्थों के वाचक हैं) यह वैयाकरणों का सिद्धान्त है। किन्तु परिवर्तनशील संसारमें काल-परिवर्तन होनेके कारण योगाभ्यासका भी क्रमशः हास होता गया और साथ ही साथ साक्षात् मन्त्रद्रष्टव शक्तिका भी। इसप्रकार अनिवार्य हासो देखकर भगवान् कश्यपने वेदके कठिन शब्दोंका संग्रहकर सर्वप्रथम 'निघण्टु' नामक कोषकी रचना की। यूथभ्रष्ट गौका गोत्र जिसप्रकार कदापि नष्ट नहीं होता, उसी प्रकार' वेदसे निकालकर संगृहीत इन शब्दों का वेदस्य भी नष्ट नहीं हुआ है, अत एव 'निघण्टु'को भी वेद ही कहते हैं। एच 'निघण्टु'के वेद होनेसे सव्याख्यानभूत निरुतमें भी वेदस्व भवाषित ही है। भगवान् प्रजापति कश्यप वेदके उपज्ञाता थे, इस बातको भगवान् ग्यासजीने कहा है 'वृषो हि भगवान् धर्मो स्यातो लोकेषु भारत । निघण्टुकपदाण्याने विद्धि मां वृषमुत्तमम् ॥ कपिराहः श्रेष्ठ धर्मश्च वृष मुच्यते । तस्माद् वृषाकपि प्राह कश्यपो मा प्रजापतिः॥ (महाभारत मोचपर्व म०३४२ । श्लो.८६-८७) निघण्टु ग्रन्थमें 'वृषाकपि' शब्दका निर्वचन ( अध्याय ५ खण्ड ६ पद६) मिलता भी है। किन्तु फिर भी जब योगाभ्यासका पूर्वाधिक हास होनेसे निघण्टु का अर्थ भी लोगों को अबोध्य प्रतीत होने लगा, तब श्यामूर्ति भगवान् 'यार'ने समाम्नाय (वेद) भून उस 'निघण्टु'का भाष्य किया; प्रक्रिया तस्य कृस्नस्म तमो वक्तुं नः कथम् ॥ सारस्वत श्को सं२। ..इसी कारण भगवान् पास्कने निघण्टु प्रन्थको रूपयकर 'समानायः समाख्याता सग्यारुपातम्यः' इस वचन के द्वारा यहाँ वेदमात्रविषयक समागाव' सम्मका प्रयोग किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016095
Book TitleAmar Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovind Shastri
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1968
Total Pages742
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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