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________________ ७८ जैन पारिभाषिक शब्दकोश कल्पनीय, जो आहार आदि वस्तु मनि के लेने योग्य है। (भग १.४३८) ऐरवत कर्मभूमि का एक प्रकार। (स्था २.२६८) (द्र ऐरावत) पृथ्वीकाय के परिणमन से निष्पन्न हैं, जैसे-चक्र आदि। चक्रादीनि सप्त एकेन्द्रियाणि पृथिवीपरिणामरूपाणि। (प्रसावृ प ३५१) एकोरुक एकोरुक नामक अन्तरद्वीप में उत्पन्न मनुष्य, जो गुफाओं में रहते हैं और मिट्टी का आहार करते हैं। आठ सौ धनुष की अवगाहना वाले होते हैं। उन प्राणियों के चौसठ पृष्ठकरण्डक होते हैं। "एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीवे णामं दीवे ॥ .."अट्ठधणुसयऊसित्ता, चोउटुिं पिट्ठकरंडगा"। (जीवा ३.२१७,२१८) एकोरुका मृदाहारा गुहावासिनः। (तवा ३.३६) एवंभूत नय क्रियापरिणति के अनुरूप ही शब्द के प्रयोग को स्वीकार करने वाला दृष्टिकोण, जैसे अध्यापनक्रिया में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए अध्यापक शब्द का प्रयोग। क्रियापरिणतमर्थं तच्छब्दवाच्यं स्वीकुर्वन्नेवंभूतः। (भिक्षु ५.१३) एवंभूत वेदना जैसे कर्म किया, वैसे ही वेदना का अनुभव करना। एवंभूयं वेयणं ति यथाविधं कर्म निबद्धं एवंभूतामेवं प्रकारतयोत्पन्नां वेदनाम्"अनुभवन्ति। (भग ५.११६७) (द्र अनेवंभूत वेदना ) एषणा दोष भिक्षाकाल में मुनि और दानदाता गृहस्थ दोनों की ओर से होने वाली अनाचरणीय प्रवृत्ति। गहणेसणाइ दोसे आयपरसमुट्ठिए वोच्छं। (पिनि ५१४) ऐरावत कर्मभूमि का वह क्षेत्र, जो शिखरी पर्वत तथा पूर्व, पश्चिम और उत्तर समुद्रों के बीच अवस्थित है। इसके बीच में विजयार्ध पर्वत है। इसमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालचक्र का क्रम चलता रहता है। शिखरिणो गिरेस्त्रयाणां पूर्वापरोत्तरसमुद्राणां मध्ये तस्यैरावतस्य उपन्यासो वेदितव्यः। (तवा ३.१०) (द्र महाविदेह) ऐर्यापथिक बन्ध (भग ८.३०२ वृ) (द्र ईर्यापथिक बन्ध) ऐर्यापथिकी क्रिया अजीवक्रिया का एक प्रकार। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली की प्रवृत्ति के निमित्त से होने वाली सातवेदनीय कर्मरूप पुद्गल-राशि। प्रवृत्तिनिमित्तं तु यत्केवलयोगप्रत्ययमुपशान्तमोहादित्रयस्य सातवेदनीयकर्मतया अजीवस्य पदगलराशेर्भवनं सा ऐर्यापथिकी क्रिया। (स्था २.४ वृ प ३७) संवुडस्स णं अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स"जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ। (भग ७.१२६) (द्र ईर्यापथिक बन्ध) एषणा समिति आगमिक विधि के अनुसार संयम-जीवन के साधनभूत अन्न-पान, पात्र, वस्त्र आदि की एषणा करना। अन्नपानरजोहरणपात्रचीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य चोदगमोत्पादनैषणादोषवर्जनमेषणासमितिः। (तभा ९.५) ओ एषणीय ओघनियुक्ति चरण-करण का सामान्य प्रतिपादन करने वाला नियुक्ति ग्रंथ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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