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________________ ५० आतुर वह व्यक्ति, जो शारीरिक और मानसिक दुःखों से दुःखी होकर अत्यंत त्वरा करता है । सारीरमाणसेहिं दुक्खेहिं आतुरीभूतो अच्चत्थं तुरति आतुरो । ( आ १.१५ चूप १०८) आतुरप्रतिषेवणा प्रतिषेवणा का एक प्रकार। भूख-प्यास और रोग से अभिभूत होकर किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । क्षुत्पिपासाव्याधिभिरभिभूतः सन् यां करोति । (स्था १०.६९ वृ प ४६० ) आतुरप्रत्याख्यान उत्कालिक श्रुत (प्रकीर्णक) का एक प्रकार, जिसमें आतुर (ग्लान) को कराए जाने वाले प्रत्याख्यान का वर्णन है। आउरो - गिलाणो, तं किरियातीतं णातुं गीतत्था पच्चक्खावेंति, दिणे दिणे दव्वहासं करेंता अंते य सव्वदव्वदातणताए भत्ते वेरगंजणेंता भत्ते नित्तण्हस्स भवचरिमपच्चक्खाणं कारेंति, एतं जत्थऽज्झणे सवित्थरं वण्णिज्जड़ तमज्झयणं आउरपच्चक्खाणं । (नन्दी ७७ चू पृ ५८) भोगों का आतुरस्मरण अनाचार का एक प्रकार आतुर दशा में भुक्त स्मरण करना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है । आउरीभूतस्स पुव्वभुत्ताणुसरणं । (द३.६ जिचू पृ ११४) आत्मदोषोपसंहार योगसंग्रह का एक प्रकार। अपने दोषों के प्रवाह को समाप्त करना । 'अत्तदोसोवसंहार' त्ति स्वकीयदोषस्य निरोधः । (सम ३२.१.३ वृ प ५५ ) आत्मप्रतिष्ठित क्रोध अपने ही विचार और आचरण के निमित्त से अपने आप पर होने वाला आवेश । स्वयमाचरितस्य ऐहिकं प्रत्यपायमवबुध्य कश्चिदात्मन एवोपरि क्रुध्यति तदा आत्मप्रतिष्ठितः क्रोध इति । (प्रज्ञा १४.३ वृ प २९० ) आत्मप्रवाद पूर्व सातवां पूर्व । इसमें आत्मा का नयों के द्वारा प्रज्ञापन किया Jain Education international जैन पारिभाषिक शब्दकोश गया है। सत्तमं आयप्पवातं, आय त्ति-आत्मा, सोऽणेगहा जत्थ यदरिसणेहिं वणिज्जति तं आयप्पवादम् । (नन्दी १०४ चू पृ ७६) आत्मभाववक्रता क्रिया मायाप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार । आत्मभाववञ्चनाअप्रशस्त आत्मभाव को प्रशस्त प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति | आत्मभावस्याप्रशस्तस्य वङ्कनता-वक्रीकरणं प्रशस्तत्वोपदर्शनता आत्मभाववङ्कनता । (स्था २.१८ वृप ३८ ) आत्मरक्षक १. इन्द्र का अंगरक्षक देव, जो शस्त्र से सन्नद्ध होकर पीछे खड़ा रहता है। आत्मरक्षाः शिरोरक्षोपमाः ॥ प्रहरणोद्यता रौद्राः पृष्ठतोऽवस्थायिनः । ( तवा ४.४ ) २. अपने सामने होने वाले असत् आचरण की स्थिति में धार्मिक प्रेरणा, मौन और एकान्त गमन द्वारा अपनी आत्मा की रक्षा करना । तओ आयरक्खा पण्णत्ता, तं जहा -- धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएत्ता भवति, तुसिणीए वा सिया, उट्ठित्ता वा आताए एतमंतमवक्कमेज्जा । (स्था ३.३४८) आत्मवाद १. वह सिद्धान्त, जो जैन दार्शनिकों के द्वारा सम्मत है। आत्मवादाः – स्वसिद्धान्तप्रवादाः । ( औप २६ वृ प ६३) २. आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व का स्वीकार करने वाला सिद्धान्त । (आभा १.५ ) आत्मविशोधि उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार इस अध्ययन में आत्मविशुद्धि के विभिन्न साधनों का वर्णन है। 1 आत त्ति आत्मा, तस्स विसोही तवेण चरणगुणेहिं य आलोयणाविहाणेण य जहा भवति तहा जत्थ अज्झयणे वणिज्जति तमझयणं आतविसोही । (नन्दी ७७ चू पृ ५८ ) आत्मशरीरानवकांक्षाप्रत्यया क्रिया अनवकांक्षाप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार। अपने शरीर की क्षति की उपेक्षा कर की जाने वाली प्रवृत्ति । तत्रात्मशरीरानवकांक्षाप्रत्यया स्वशरीरक्षतिकारिकर्माणि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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