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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश अमूढदृष्टि सम्यक्त्व का चतुर्थ आचार । यथार्थ दृष्टि । देव, गुरु और धर्म से जुड़े हुए परवादियों के चमत्कारों को देखकर उनके प्रति आकृष्ट न होने वाली दृष्टि । गविधा इड्डीओ, यूयं परवादिणं च दट्ठूणं । जस्सन मुज्झइ दिट्ठी, अमूढदिट्ठि तयं बेंति ॥ ( निभा २६) अमूर्त्त अरूपी । वर्ण, गंध, रस और स्पर्श- इन गुणों से रहित द्रव्य, जैसे - आत्मा आदि । रूपादिगुणाभावादमूर्त्ताः । (बृद्रसं १५ वृ पृ ४०) अम्ब परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार। वह असुर देव, जो नैरयिकों को दौड़ाता है, घुमाता है, उनका हनन करता है, उन्हें शूलों में पिरोता है, भूमि पर ओंधे मुंह गिराता है, आकाश में उछालता है। धाडेंति पधाडेंति य, हणंति बिंधंति ति निसुभंति । पाडिंति अंबरतले, अंबा खलु तत्थ नेरइया ॥ (सूत्रनि ६८) अम्बरिसी परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार। वह असुर देव, जो मुद्गरों से आहत, खड्ग से उपहत नैरयिकों को करवत से चीरकर टुकड़े-टुकड़े कर छिन्न-भिन्न करता है। ओहतहते य निहते, निस्सण्णे कप्पणीहि कप्पंति । बिदलग - चडुलग छिन्ने, अंबरिसी तत्थ नेरइया ॥ (सूत्रनि ६९ ) अयशः कीर्तिनाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव को अपयश और अकीर्ति प्राप्त होती है। यदुदयवशात् मध्यस्थस्यापि जनस्याप्रशस्यो भवति तदयश:कीर्त्तिनाम | (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७५) Jain Education International अयोग संवर आत्मा की अप्रकम्प अवस्था - मन, वचन और काय की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध | अप्रकम्पोsयोगः । (जैसिदी ५.१५ ) (द्र अयोगि केवली जीवस्थान) अयोगिकेवली जीवस्थान जीवस्थान/गुणस्थान का चौदहवां प्रकार । मन, वचन और शरीर की सम्पूर्ण प्रवृत्ति से मुक्त केवली की आत्मविशुद्धि | अयोगिकेवली - निरुद्धमनः प्रभृतियोगः । (सम १४.५ वृप २७ ) ३३ अरति नोकषाय का एक प्रकार, जो चारित्र मोहनीय कर्म की एक प्रकृति है । इसके उदय से संयम में आनन्द की अनुभूति नहीं होती । यदुदयेन तेष्वेवारतिरुत्पद्यते तदरतिकर्म्म। (स्था ९.६९ वृ प ४४५) अरति परीषह परीषह का एक प्रकार । ग्रामानुग्राम विहार करने से आने वाली खिन्नता, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। गामाणुगामं रीयंतं अणगारं अकिंचणं । अरई अणुप्पविसे तं तितिक्खे परीसहं ॥ अरई पिटूओ किच्चा विरए आयरक्खिए । धम्मारामे निरारंभे उवसंते मुणी चरे ॥ अरतिरति पाप ( उ २.१४, १५) For Private & Pe: (द्र अमniliy (भग १.३८४) (द्र रतिअरति पाप) अरहस्यधारक अतीव रहस्यपूर्ण छेदसूत्रों के तत्त्व को धारण करने वाला अपात्र को उनकी वाचना नहीं देने वाला मुनि । नास्त्यपरं रहस्यान्तरं यस्मात् तद् अरहस्यम् - अतीवरहस्यच्छेदशास्त्रार्थतत्त्वमित्यर्थः, तद् यो धारयति - अपात्रेभ्यो न प्रयच्छति सोऽरहस्यधारकः । (बृभा ६४९० वृ) अरुणोपपात कालिक श्रुत का एक प्रकार । वह अध्ययन, जिसमें अरुण नामक देव की वक्तव्यता है तथा जिसका परावर्तन करने पर अरुण देव उपस्थित हो जाता है। अरुणो नाम देवः तद्वक्तव्यताप्रतिपादको यो ग्रन्थः परावर्त्यमानश्च तदुपपातहेतुः सोऽरुणोपपातः । ( नन्दी ७८ मवृ प २०६ ) अरूपी (स्था २.१ ) www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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