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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश अनुदयबन्धोत्कृष्टा कारोपणा। (सम २८.१.२६ वृ प ४८) वह कर्म-प्रकृति, जिसके विपाकोदय के प्रवर्त्तमान न होने (द्र आरोपणा प्रायश्चित्त) पर भी अपने बंधकाल से ही उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है, अनुधर्मचारी जैसे-मनुष्यायु, तिर्यञ्चायु। गुरु ने जैसा आचरण किया, वैसा आचरण करने वाला यासां तु विपाकोदयाभावे बन्धादुत्कृष्टस्थितिसत्कर्मा शिष्य। वाप्तिस्ता: अनुदयबन्धोत्कृष्टाः। (कप्र पृ ४५) अणुधम्मचारिणो""तेन चीर्णमनुचरन्ति यथोद्दिष्टम्। अनुदयवती (सूत्र १.२.४७ चू पृ ६७) वह कर्म-प्रकृति, जिसके दलिक चरम समय में समानजातीय अनुपदेश आहिण्डक प्रकृतियों में संक्रान्त होकर भोगे जाते हैं, अपनी प्रकृति के वह मुनि, जो कुतूहलवश देश-दर्शन के लिए यात्रा करता है। उदय रूप में नहीं भोगे जाते, जैसे-सातवेदनीय, असातवेदनीय ये तु कौतुकेन देशदर्शनं कुर्वन्ति तेऽनुपदेशाहिण्डकाः। आदि। (बृभा ५८२५ वृ) यासां प्रकतीनां दलिकं चरमसमयेऽन्यासु प्रकृतिषु स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमय्यान्यप्रकृतिव्यपदेशेनानुभवेत्, न स्वोदयेन, अनुपयुक्त ता: अनुदयवतीसंज्ञाः। (कप्र पृ ४५) १. जो जानने के लिए चेतना का व्यापार नहीं कर रहा है। २. वह व्यक्ति, जो करणीय कार्य में दत्तचित्त नहीं है। अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा तत्थ णं जेते अणुवउत्ता ते णं ण याणंति ण पासंति वह कर्म-प्रकृति, जिसकी स्थिति बंधकाल में अल्पकालिक आहारेति। (प्रज्ञा १५. ४८) होती है किन्तु अनुदयकाल में संक्रमण के द्वारा अन्य दलिकों का प्रक्षेप होने पर उत्कृष्ट बन जाती है, जैसे--मनुष्यानुपूर्वी, अनुपरतकायक्रिया कायिकी क्रिया का एक प्रकार। विरतिरहित व्यक्ति की तीर्थंकर नाम आदि। यासां प्रकृतीनामनुदये संक्रमत उत्कृष्टस्थितिलाभस्ताः कायिकप्रवृत्ति। अनुपरतस्य-अविरतस्य सावधात् मिथ्याद्रष्टे: सम्यग्दृष्टे अनुदयसंक्रमोत्कृष्टाः। (कप्र पृ ४४) कायक्रिया-उत्क्षेपादिलक्षणा कर्मबन्धनिबन्धनमनुपरतअनुदिशा कायक्रिया। (स्था २.६ वृ प ३८) आग्नेय आदि चार विदिशाएं, जो पूर्व आदि चार दिशाओं के (द्र दुष्प्रयुक्तकायक्रिया) मध्य में होती हैं। अनुपशान्त अणुदिसा अग्गेयादी। (सूत्र २.१.१० चू पृ ३१३) उदयावस्था को प्राप्त कषाय। अनुद्घातिक अनुपशान्त:-उदयावस्थः। (प्रज्ञा १४.९ वृप २९१) तपःप्रायश्चित्त का एक प्रकार । गुरु प्रायश्चित्त, जिसका वहन अनुपारिहारिक निरन्तर किया जाए। परिहारविशुद्धि चारित्र की साधना में संलग्न मुनियों की अणग्यातियं णाम जं निरंतरं वहति गुरुमित्यर्थः । सेवा करने वाले मुनि। ये गायों के पीछे ग्वाले की भांति (निचू ३ पृ ६२) पारिहारिक का अनुवर्तन करते हैं। अनुद्घातिक आरोपणा चत्वारो वैयावृत्त्यकरा...। (प्रसावृ प ६०७) आरोपणा प्रायश्चित्त का एक प्रकार । जिस प्रायश्चित्त में भाग अणुपरिहारिए गोवालए व णिच्च उज्जुत्तमाउत्ते। नहीं किया जाता, वह अनुद्घातिक है। (बृभा ६४७०) सार्द्धदिनद्वयाद्यनुरातनेन गुरूणामारोपणा अनुद्घाति- अनुप्रेक्षा स्वाध्याय का एक प्रकार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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