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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश वह मुनि, जिसका प्रव्रज्या-पर्याय तीन वर्ष हो चका है। यः प्रव्रज्यापर्यायेण त्रिवर्षोत्तीर्णः सोऽनवक उच्यते। (व्यभा १५७८ ७) अविद्यमाना आकारा-महत्तराकारादयो निच्छिन्नप्रयोजनत्वात् प्रतिपत्तुर्यस्मिस्तदनाकारम्। (स्था १०.१०१ वृ प ४७२) अनवकांक्षाप्रत्यया क्रिया अपेक्षा न रखकर (परिणाम की चिंता किए बिना) की जाने वाली प्रवृत्ति। अनवकांक्षा-स्वशरीराधनपेक्षत्वं सैव प्रत्ययो यस्याः साऽनवकांक्षाप्रत्यया। (स्था २.३२ वृ प ४०) अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त का नौवां प्रकार, जिसमें प्रायश्चित्तकर्ता को कुछ समय के लिए संघ से निष्कासित कर तपस्यापूर्वक पुनः दीक्षा दी जाती है। यस्मिन्नासेविते कञ्चन कालं व्रतेष्वनवस्थाप्यं कृत्वा पश्चाच्चीर्णतपास्तद्दोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाप्यः । (स्था १०.७३ वृ प ४६१) अनागत प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान का एक प्रकार। पर्युषण आदि के लिए निर्धारित तप समय से पूर्व करना, जिससे उस समय स्वयं को आचार्य आदि की सेवा में लगा सके। अनागतकरणादनागतं-पर्युषणादावाचार्यादिवैयावत्त्यकरणान्तरायसद्भावादारत एव तत्तपःकरणम्। (स्था १०.१०१ वृ प ४७२) अनागाढयोग जिस योगवहन में आहार आदि से संबंधित अत्यन्त गाढप्रबल नियंत्रण नहीं होता, जैसे-उत्तराध्ययन आदि सूत्रों के अध्ययनकाल में विकृति से संबंधित कोई कड़ा नियंत्रण नहीं होता है। (द्र आगाढयोग) अनवस्थितकल्प (प्रसावृ प १८६) (द्र अस्थितकल्प) अनशन बाह्य तप (निर्जरा) का एक प्रकार । अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य-इस चतुर्विध आहार का परित्याग, जो सावधिक और निरवधिक दोनों प्रकार से किया जाता है। आहारपरिहारोऽनशनम्। (जैसिदी ६.३०) (द्र इत्वरिक अनशन, यावत्कथिक अनशन) अनाचार १. आचार के अतिक्रमण की दिशा में चौथा चरण। ज्ञान, दर्शन अथवा चारित्र के प्रतिकूल आचरण का पूर्णतः सेवन । तिविधे अणायारे पण्णत्ते, तं जहा–णाणअणायारे, दंसणअणायारे, चरित्तअणायारे। (स्था ३.४४३) (द्र अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार) २. मनि के लिए जो अकल्प्य. अग्राह्या. असेव्य. अभोग्य और अकरणीय है-अनाचीर्ण है। अणाचिण्णं अकप्पं। (दअचू पृ ५९) अनाकार उपयोग दर्शनोपयोग, सामान्यग्राही अवबोध, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक द्रव्य के उत्पाद-व्यय रूप पर्याय को गौण कर केवल ध्रौव्य धर्म को ग्रहण करने वाला अवबोध, दर्शन। उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकस्य द्रव्यस्य उत्पादव्ययात्मकं पर्याय गौणीकृत्य ध्रौव्यस्य ग्राहकं दर्शनमनाकार उपयोग इत्युच्यते। (जैसिदी २.६७) अनाकार प्रत्याख्यान वह प्रत्याख्यान, जिसमें परिस्थिति आदि की कोई छूट न रखी गई हो। अनादर सामायिक का एक अतिचार । प्रतिनियत वेला में सामायिक न करना अथवा अनुत्साहपूर्वक जैसे-तैसे करना। अनादरोऽनुत्साहः, प्रतिनियतायां वेलायामकरणं सामायिकस्य, यथाकथञ्चित् प्रवृत्तिरनादरः। (तभा ७.२८ वृ) अनादि-अपर्यवसाननित्यता वह नित्यता, जिसका आदि, अन्त नहीं होता, जैसे-लोक, अलोक की संरचना। अनाद्यपर्यवसाननित्यता सावधिनित्यता च, तत्राद्या लोकसन्निवेशवदनासादितपूर्वापरावधिविभागा सन्तत्यव्यवच्छेदेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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