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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १३ किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः। (प्रनत १.१३) विवक्षितप्रदेशापेक्षया अनन्तरप्रदेशेष्ववगाढा-अवस्थिता अनन्तरावगाढाः। (स्था १०.१२३ वृ प ४८७) अनन्त (द्र परम्परावगाढ) गणनासंख्या का एक प्रकार । जिनका अन्त नहीं है, वे अनन्त कहलाते हैं। उत्कृष्ट असंख्येय-असंख्येय में एक का प्रक्षेप अनन्तराहारक करने पर जघन्य परीत-अनन्त होता है। अनन्त के तीन १. वह जीव, जिसने उत्पन्न होने के प्रथम समय में आहार प्रकार हैं-परीत, युक्त और अनन्त। इनमें से परीत-अनन्त लिया हो। और युक्त-अनन्त के तीन-तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम, प्रथमसमयाहारका अनन्तराहारकाः । उत्कृष्ट तथा अनन्त-अनन्त के दो भेद हैं-जघन्य और मध्यम। (स्था १०.१२३ वृ प ४८७) असंख्येय और अनन्त में यह अन्तर है कि एक-एक संख्या २. वह जीव, जो अनन्तर-जीव-प्रदेशों से स्पष्ट पुद्गलों के घटाने पर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है का आहार करता है। और जो राशि समाप्त नहीं होती वह अनन्त है। अनन्तरान्-अव्यवहितान्जीवप्रदेशैराक्रान्ततया स्पृष्टतया वा अविद्यमानोऽन्तो येषां ते अनन्तः। (ससि ५.९) पुद्गलानाहारयन्तीत्यनन्तराहारकाः। किमसंखेज्जं णाम? जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमाणे (स्था १०.१२३ वृ प ४८७) णिट्टादि सो असंखेज्जो।जो पुणण समप्पइ सो रासी अणंतो। (द्र परम्पराहारक) (ध पु ३ खं १ भा २ सू २६७) अनन्तरोपपन्न (द्र संख्येय, असंख्येय) वह जीव, जिसे उत्पन्न हुए मात्र एक समय हुआ है। अनन्तजीव अनन्तरोपपन्नकाः येषामुत्पन्नानामेकोऽपि समयो नातिक्रान्तः। वह वनस्पति, जिसके एक शरीर में अनन्त जीव विद्यमान (स्था १०.१२३ वृ प ४८७) हों। (द्र परंपरोपपन्न) चक्कागं भन्जमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे। अनन्तवियोजक पढवीसरिसभेदेण, अणंतजीवं वियाणाहि॥ १. वह जीव, जो अनन्त संसार के हेतुभूत अनन्तानुबन्धी गूढछिरागं पत्तं, सच्छीरं जंच होति णिच्छीरं। क्रोध आदि का विलय कर देता है। जं पि य पणट्ठसंधिं, अणंतजीवं वियाणाहि॥ २. वह पुरुष, जो अनन्त संसार के अनुबंधी क्रोध आदि को पउमुप्पलिणीकंदे अंतरकंदे तहेव झिल्ली य। उपशान्त अथवा क्षीण करता है। एते अणंतजीवा.....। (प्रज्ञा १. ४८.३८, ३९, ४२) अनन्तः संसारस्तदनुबन्धिनोऽनन्ताः क्रोधादयस्ता वियोजयति सव्वोऽवि किसलओखल, उग्गममाणो अणंतओ भणिओ। सो चेव विवडूंतो, होइ परित्तो अणंतो वा। क्षपयत्युपशमयति वा अनन्तवियोजकः। (तभा ९.४७ वृ) (बृसं ३०३) अनन्तवृत्तिताअनुप्रेक्षा अनन्तरपर्याप्त शुक्ल ध्यान की अनुप्रेक्षा का एक प्रकार । संसार-परम्परा की वह जीव, जिसे पर्याप्त हुए एक समय हुआ हो। अनन्तता का चिन्तन करना। न विद्यते पर्याप्तत्वेऽन्तरं येषां ते अनन्तरास्ते च ते पर्याप्त अनन्ता-अत्यन्तं प्रभूता वृत्तिः-वर्तनं यस्यासावनन्तकाश्चेत्यनन्तरपर्याप्तकाः, प्रथमसमयपर्याप्तकाः। वृत्तिः""""भवसन्तानस्येति गम्यते, तस्या अनुप्रेक्षा अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा। (स्था ४.७२ वृ प १८१) (स्था १०.१२३ वृ प ४८७) (द्र परम्परपर्याप्त) अनन्तसंसारी वह जीव, जिसका भव सीमित न हुआ हो। अनन्तरावगाढ परीत्तसंसारिकाः संक्षिप्तभवा इतरे त्वितरे। विवक्षित क्षेत्र से अव्यवहित आकाशप्रदेशों में अवस्थित (स्था २.१८८ वृ प५६) Jain जीव अथवा पदराल। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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