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________________ २७६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश व्यन्तर देव वह देवनिकाय, जो अध:तर्यक् और ऊर्ध्व-तीनों लोकों का स्पर्श करता है, स्वतन्त्रतापूर्वक अथवा दूसरे की अधीनता के कारण गति करता रहता है तथा पर्वत की गुफा, वन-विवर आदि विविध स्थानों में निवास करता है। यस्माच्चाधस्तिर्यगूर्ध्वं च त्रीनपिलोकान् स्पृशन्तः स्वातन्त्र्यात् पराभियोगाच्च प्रायेण प्रतिपतन्त्यनियतगतिप्रचाराः, मनुष्यानपि केचिद् भृत्यवदुपचरन्ति। विविधेषु च शैलकन्दरान्तरवनविवरादिषु प्रतिवसन्ति, अतो व्यन्तरा इत्युच्यन्ते।। (तभा ४.१२ ) (द्र वानमन्तर देव) व्यवसाय वस्तुनिर्णय और पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान। 'व्यवसायो' वस्तुनिर्णयः पुरुषार्थसिद्ध्यर्थमनुष्ठानं वा। (स्थावृ प १४१) इहलोइए ववसाए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-लोइए, वेइए, सामइए। (स्था ३.३९६) व्यवसायसभा अध्ययन-कक्ष, जहां इन्द्र अध्ययन करता है। व्यवसायसभा यत्र पुस्तकवाचनतो व्यवसायं-तत्त्वनिश्चयं करोति। (स्था ५.२३५ वृ प ३३४) व्यय त्रिपदी का एक अंग। द्रव्य की पूर्व अवस्था का तिरोभाव अथवा विनाश, जैसे-घट की उत्पत्ति होने पर मृत्पिण्ड का विनाश। पूर्वभावविगमनं व्ययः। यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृतेः। (ससि ५.३०) व्ययः तिरोभावलक्षणः, पूर्वावस्थायास्तिरोधानं-विनाशः। (तभा ५.२९ वृ) 'वियड' त्ति विगतिर्विगमः, सा चैकोत्पादवदिति। (स्था १.२३ वृ प १९) (द्र उत्पाद) व्यवहार १. जो जिस प्रायश्चित्त के योग्य हो. उसे वह प्रायश्चित्त देना। व्यवह्रियते यद् यस्य प्रायश्चित्तमाभवति स तद्दानविषयीक्रियतेऽनेनेति व्यवहारः। (व्यभापी प३) २. साधु के कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति के निर्धारण का आधार। व्यवहारो-मुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः। (स्था ५.१२४ वृ प ३०२) ३. कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें प्रायश्चित्त, आचार, व्यवहार आदि का विवरण है। चार छेदसूत्रों में से एक। (नन्दी ७८) ...ववहारे ववहरिया, पायच्छित्ताऽऽभवंते य॥ पडिसेवण संजोयण, आरोवण कंचियं चेव।.... (व्यभा १५३, १५४) दसाकप्पववहारा निज्जूढा पच्चक्खाणपुव्वातो। (दशाचू प ५) व्यवदान १. कर्मनिर्जरा, पूर्वकृत कर्म का वह विनाश. जिससे जीव योगनिरोध कर मुक्त हो जाता है। व्यवदानं पूर्वकृतकर्मवनलवनम्। (स्था ३.४१८ वृप १४६) वोदाणं-कर्मनिर्जरा, कर्मविवेकस्य च प्रयोजनम् असरीरया चेव'। (आवहावृ१पृ१८७) .."तवेणं वोदाणं जणयह॥"वोदाणेणं अकिरियं जणयह॥ (उ २९.२८,२९) २. तपोजन्य कर्मविलय से होने वाली आत्मा की परम विशुद्धि। व्यवदानं पर्वबद्धकर्मापगमतो विशिष्टां शुद्धिम्। (उशावृप५८६) व्यवहारनय १. द्रव्यार्थिकनय अथवा अर्थनय का एक प्रकार । विशेषग्राहीभेद को ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण । भेदग्राही व्यवहारः। (भिक्षु ५.८) ""द्रव्यार्थिकत्वाद् असौ परमाणु यावद् गच्छति, न तु अर्थपर्याये। (भिक्षु ५.८ वृ) २. लोकप्रसिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करने वाला दृष्टिकोण, जैसे-भौंरा काला होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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