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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २७५ (नन्दी ७८) देव उपस्थित हो जाता है। (द्र अरुणोपपात) आदि का ज्ञान करने वाली विद्या। शिरोमुखग्रीवादिषु तिलकमशकलक्ष्यव्रणादिवीक्षणेन त्रिकालहिताहितवेदनं व्यञ्जनम्। (तवा ३.३६) वैनसिक बन्ध (जैसिदी १.१५ वृ) (द्र विस्रसा बन्ध) व्यञ्जन पर्याय वह पर्याय, जो स्थूल होता है, कालान्तर स्थायी होता है और शब्दों के द्वारा बताया जा सकता है। स्थल: कालान्तरस्थायी शब्दानां संकेतविषयो व्यञ्जनपर्यायः। (जैसिदी १.४२) (द्र अर्थपर्याय) वैहायस मरण ऊंचाई से कूदने, वृक्ष की शाखा पर लटकने, पर्वत से गिरने आदि के कारण होने वाला मरण। विहायसि-व्योमनि भवं वैहायसं, विहायोभवत्वं च तस्य वृक्षशाखाद्युबद्धत्वे सति भावात्। (सम १७.९ ७ प ३३) ऊर्ध्वं वृक्षशाखादौ बन्धनमुबन्धनं तदादिर्यस्य तरुगिरिभृगुप्रपातादेरात्मजनितस्य मरणस्य तद्बन्धनादि"गृध्रपृष्ठवैहायसाख्ये मरणे। (उशावृ प २३४,२३५) व्यञ्जनाक्षर अक्षरश्रुत का एक प्रकार । अक्षर का व्यक्त उच्चारण। वंजणक्खरं-अक्खरस्स वंजणाभिलावो। (नंदी ५८) व्यक्त १. अवस्था की दृष्टि से परिपक्व-सोलह वर्ष वाला। २. श्रुत से परिपक्व-गीतार्थ। वयसा व्यक्तः षोडशवार्षिकः । श्रुतेन च व्यक्तो गीतार्थः। (बृभा ५४७५ वृ) व्यक्तास्तु ये वयश्रुताभ्यां परिणताः। (सम १८.३ वृ प ३४) व्यञ्जनावग्रह अवग्रह का एक प्रकार। इन्द्रियों का अर्थ से संबंध होने पर शब्द आदि विषयों का अव्यक्त ज्ञान। व्यञ्जनेन-सम्बन्धेनावग्रहणं सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्याव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः। (नन्दी ४० मत प १६८) (द्र अर्थावग्रह) व्यतिक्रम आचार के अतिक्रमण की दिशा में दूसरा चरण। ज्ञानाचार, दर्शनाचार और चारित्राचार के प्रतिकूल आचरण का प्रयत्न। तिविधे वइक्कमे पण्णत्ते, तं जहा-णाणवइक्कमे, दंसणवइक्कमे, चरित्तवइक्कमे। (स्था ३.४४१) (द्र अतिक्रम) व्यजन विद्या वह विद्या, जिसमें अभिमन्त्रित पंखे से रोगी का अपमार्जन किया जाता है और वह स्वस्थ हो जाता है। व्यजनविषया विद्या यया व्यजनमभिमत्र्य तेनातुरोऽपमृज्यमानः स्वस्थो भवति, सा व्यजनविद्या। (व्यभा २४३९७) व्यञ्जन ज्ञानाचार का एक प्रकार । सम्यक् उपयोगपूर्वक आगम का पाठ करना। व्यञ्जनानि-ककारादीनि “सम्यगुपयोगेन च यतः सूत्रादि पठनीयं नान्यथा। _(प्रसा २६७ वृ प ६४) व्यञ्जननिमित्त अष्टाङ्ग महानिमित्त का एक प्रकार । सिर, मुंह, गर्दन आदि में तिल, मस्से आदि चिह्नों के आधार पर लाभ-अलाभ व्यतिरेक (प्रमी २.१.१२ वृ) (द्र अन्यथानुपपत्ति) व्यत्यानेडित ज्ञान का एक अतिचार । मूल पाठ में अन्यान्य ग्रंथों के पाठों को मिलाना। अण्णोण्णज्झयणसुयक्खंधेसु घडमाणे आलावए विवितुं जोएंते विच्चामेलणा भवति। (निभा २७७६ चू) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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