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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश नयविषयीकृतस्य वस्तुधर्मस्य यदा कालादिभिर्भेदविवक्षा क्रियते तदा एकस्य शब्दस्यानेकार्थप्रतिपादने सामर्थ्याभावाद् भेदवृत्त्या भेदोपचारेण वा क्रमेण यदभिधायकं वाक्यं स विकलादेशः । (प्रनत ४.४५ वृ) विकलेन्द्रिय वे स प्राणी, जो दो, तीन, चार इन्द्रियों वाले होते हैं । विकलेन्द्रियाः द्वित्रिचतुरिन्द्रिया इत्यर्थः । ( प्रसा १०६६ वृ) विकारक कर्म मोहनीय कर्म, जो दर्शन और चारित्र को विकृत करता है। तत्कर्म दृष्टिचारित्रयोर्विकारस्य ""हेतु भवति । (जैसिदी ४.२ वृ) विकाल संध्या का समय अथवा संध्या के बाद का समय । सन्ध्यायां तु यत एते विरमन्ति ततः सा विकालः । (बृभा ३०४२ वृ) विकुर्वणा वैक्रिय लब्धि अथवा शक्ति के द्वारा विविध आकृतियों का निर्माण करना। या पुनर्बाह्यपुद्गलपर्यादानपूर्विका सोत्तरवैक्रियरचनालक्षणा, सा च विचित्राभिप्रायपूर्वकत्वाद् वैक्रियलब्धिमतस्तथाविधशक्तिमत्त्वाच्चैकजीवस्याप्यनेकापि स्यादिति (स्था १.१८ वृप १८) पर्यवसितम् । विकृति वह पदार्थ, जो मानसिक विकार पैदा करता है, जैसे- दूध, दही आदि । ra विगतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - खीरं, दधिं, णवणीतं, (स्था ९.२३) सप्पिं, तेलं, गुलो, महुं, मज्जं, मंसं । दुद्धं दहि नवणीयं घयं तहा तेल्लमेव गुड मज्जं । महु मंसं चेव तहा ओगाहिमगं च विगईओ ॥ विकृतयो - मनसो विकृतिहेतुत्वात् । (द्र महाविकृति) विकृष्ट तप तेला, चोला आदि तप । Jain Education International (प्रसा २१७ वृप ५३ ) विकृष्टं - अष्टमदशमद्वादशादिकं तपः कर्म भवति । २६३ (प्रसावृ प २५४) विक्रिया (द्र विकुर्वणा) विक्षिप्ता प्रतिलेखना का एक दोष । प्रतिलेखित वस्त्रों को अप्रतिलेखित वस्त्रों पर रखना अथवा वस्त्र के अञ्चल को इतना ऊंचा उठाना कि उसकी प्रतिलेखना न हो सके। विक्षेपणं विक्षिप्त सा च प्रत्युपेक्षितवस्त्रस्यान्यत्राप्रत्युपेक्षिते क्षेपणं, प्रत्युपेक्षमाणो वा वस्त्राञ्चलं यदूर्ध्वं क्षिपति । ( उ २६.२६ शावृ प ५४०, ५४१ ) ( तवा २.३६ ) विक्षेपणी वह कथा, जिसके द्वारा स्वसमय की स्थापना की जाती है। विक्खेवणी" ससमयं कहेइ, ससमयं कहित्ता परसमयं कहेड़, परसमयं कहेत्ता ससमयं ठावइत्ता भवति । (स्था ४.२४८) विग्रहगति १. अंतरालगति, एक स्थान से दूसरे जन्मस्थान में जाते समय होने वाली जीव की गति, जो एकसामयिक, द्विसामयिक, त्रिसामायिक अथवा चतु: सामयिक होती है । For Private & Personal Use Only २. वक्र गति, जो एक जन्म से दूसरे जन्म के अंतराल में, उत्पत्तिस्थान के विश्रेणि में स्थित होने पर होती है । इसमें दो, तीन अथवा चार समय लगते हैं। उज्जुआयता सेढी उववज्जमाणे एगसमइएणं एगओवंकाए सेढीए''''दुसमइएणं दुहओवंकाए सेढीए'''' तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ।... ....जे भविए विसेदिं उववज्जित्तए, से णं चउसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । (भग ३४.३, १५) यदा मरणस्थानाऋज्वायता श्रेणि विशिष्ट स्थानप्राप्तिहेतुभूता गतिर्विग्रहः पेक्षयोत्पत्तिस्थानं समश्रेण्यां भवति तदा भवति । (भग ३४.२, ३ वृ) विग्गो वक्को कुटिलो त्ति एगट्ठा । (धव पु४ पृ २९) विग्रहगतिः - वक्रगतिर्यदा विश्रेणिव्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं गन्तव्यं भवति तदा या स्यात् । (स्थावृ प ५२) कूर्परलाङ्गलगोमूत्रिकाकारेण यथाक्रमं द्वित्रिचतुः समय www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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